पहुंचे नहीं मंज़िल पे
कोई एक भी कहीं
रस्ते वहीँ पड़े पड़े
सड़ते ही क्यूँ गए ?
चिपके रहे सूखे से काँटे
देर तक कहीं
सब हरे पत्ते शजर से
झड़ते ही क्यूँ गए ?
जाती हुई लहरों पे था
बहना बहुत आसाँ
आती हुई लहरों से हम
लड़ते ही क्यूँ गए ?
हर सही बात पे सौदा करके
हर गलत बात पे
ज़हीन लोग
अड़ते ही क्यूँ गए ?
मुझे थी झूठ बोलने में
महारत हासिल
जब भी सच बोला सरे आम
वो पकड़ते ही क्यूँ गए ?
रोमाँ-ओ-मिस्र के शहरों
की खुदाई करके
मुर्दे शहर के, ज़मीं में
गड़ते ही क्यूँ गए ?
चर्चा-ए-क़त्ल कम हुए
अच्छा हुआ चलो
क़त्ल-ए-आम शहर में मगर
बढ़ते ही क्यूँ गए ?
सारे खतों में सादे कागज़
मजमून-ए-खामशी
फिर वो , सभी मेरे वो ख़त
पढ़ते ही क्यूँ गए ?
था हौसला जुनून भी था
कामरान थे
ज़ीने सभी नाक़ामी के
चढ़ते ही क्यूँ गए ?
हर बार सोचा सुलह कर लें
दोस्ती करें
हर बार मेरे यार
झगड़ते ही क्यूँ गए ?
दुनिया की सारी ख़्वाहिशें
पूरी हुईं अगर
मंदिर की सारी चौखटें
रगड़ते ही क्यूँ गए ?
तारीख जानती है
मंसूबा-ए-मज़हब
झूठे किस्से भाई चारे के
गढ़ते ही क्यूँ गए ?
(शजर- पेड़, ज़हीन- बुद्धिमान, मजमून-ए-खामशी- ख़ामोशी का सन्देश, मंसूबा-ए-मज़हब- धर्म के मंसूबे )
-स्वतःवज्र