Monday 30 January 2012

सबब नामालूम...



पहुंचे नहीं मंज़िल पे
कोई एक भी कहीं 
रस्ते वहीँ पड़े पड़े 
सड़ते ही क्यूँ गए  ?

चिपके रहे सूखे से काँटे
देर तक कहीं
सब हरे पत्ते शजर से 
झड़ते ही क्यूँ गए ?

जाती हुई लहरों पे था 
बहना बहुत आसाँ
आती हुई लहरों से हम 
लड़ते ही क्यूँ गए ? 

हर सही बात पे सौदा करके 
हर गलत बात पे 
ज़हीन लोग 
अड़ते ही क्यूँ गए ? 

मुझे थी झूठ बोलने में 
महारत हासिल
जब भी सच बोला सरे आम 
वो पकड़ते ही क्यूँ गए ?

रोमाँ-ओ-मिस्र के शहरों 
की खुदाई करके
मुर्दे शहर के, ज़मीं में 
गड़ते ही क्यूँ गए ? 

चर्चा-ए-क़त्ल कम हुए 
अच्छा हुआ चलो
क़त्ल-ए-आम शहर में मगर 
बढ़ते ही क्यूँ गए ? 

सारे खतों में सादे कागज़
मजमून-ए-खामशी 
फिर वो , सभी मेरे वो ख़त 
पढ़ते ही क्यूँ गए ? 

था हौसला जुनून भी था 
कामरान थे
ज़ीने सभी नाक़ामी के 
चढ़ते ही क्यूँ गए ?

हर बार सोचा सुलह कर लें 
दोस्ती करें
हर बार मेरे यार 
झगड़ते ही क्यूँ गए ? 

दुनिया की सारी ख़्वाहिशें 
पूरी हुईं अगर
मंदिर की सारी चौखटें 
रगड़ते ही क्यूँ गए ? 

तारीख जानती है
मंसूबा-ए-मज़हब
झूठे किस्से भाई चारे के  
गढ़ते ही क्यूँ गए ?

(शजर- पेड़, ज़हीन- बुद्धिमान,  मजमून-ए-खामशी- ख़ामोशी का सन्देश,  मंसूबा-ए-मज़हब- धर्म के मंसूबे )


-स्वतःवज्र

 

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