Wednesday 31 October 2012

सुने की इन्तेहा है अब न सुना जाता है !

(यह उस मन की व्यथा है जो ताउम्र  classes attend कर कर के और Guest lecturers ke PPTs देख देख के ऊब चुका है )


जो भी आता है यहाँ
बोल के ही जाता है
कहा है जो कुछ
सदियों से कहा जाता है

कहे की इन्तेहा है अब न सुना जाता है !
सुने की इन्तेहा  है अब न सुना जाता है !!

ऐसा नहीं कि मैं कामरान नहीं
ऐसा नहीं कि  ये करना आसान नहीं
हर दफ़ा कोशिश की है
सुनकर समझने की
चुप रहने की भी पर
अब रहा न जाता है
सुने की इन्तेहा  है अब न सुना जाता है !

उन्हें कहना है वही
जो वो किया करते थे
वो भी कहना है
जो कि  करने से डरते थे
हमें पता है
वही डर उन्हें सताता है
सुने की इन्तेहा  है अब न सुना जाता है !

वो बातें करते हैं समन्दरों पहाड़ों की
वो बातें करते हैं शेर की दहाड़ों की
जहाँ की
दुनिया की
सारी खसूसियात  की भी
बर्फ़बारी की भी
ओलों की भी
बरसात की भी
क्यूँ भूल जाते हैं
हमको भी ये फन आता है
सुने की इन्तेहा  है अब न सुना जाता है !

कई पुराने से दरवेश बोला करते थे
वो सबसे मिलने को सुदूर घूमा करते थे
प्रबुद्ध भी गए
तो बुद्ध भी गए
अजातशत्रु मिला
कितने मिलने आये थे
सवाल कितने जटिल
साथ-साथ लाये थे
तभी तो बुद्ध रुक गए थे
मुस्कुराए थे !
वो शांत हो गए थे
वो शांत आज भी हैं
इन बातों को बिन कहे ही सुना जाता है
सुने की इन्तेहा  है अब न सुना जाता है !

बख्शो राहत ज़रा सा आप
अपनी जीभ को भी
के बख्श दो मेरे कानों को
दुखती पीठ को भी
आपका सच पता है
गोल है  पेचीदा है
लच्छेदार है
लिपटा सा है पोशीदा है
नए से सूट में नंगा सा नज़र आता है

कहे की इन्तेहा है अब न सुना जाता है !
सुने की इन्तेहा  है अब न सुना जाता है !!


Monday 29 October 2012

आँसू आस और तुम


वो दो आँसू मेरी पलकों मे 
तब रुके से थे
तुम्हारी उन हथेलियों के 
इंतेज़ार मे थे

बंद आँखों मे ढले 
नर्म आँसू
तुम्हारी गर्म सी हथेलियों की 
आस मे थे

सोचा करते थे के 
देखोगी कभी
सबब सारे आँसुओं के
पूछोगी कभी
या फिर नहीं भी कभी...

तो भी इक आस सी लगी थी 
हथेलियों से कहीं...

के वो सहला के मेरे 
उलझे छल्ले बालों के
और फिर बढ़के कभी 
थाम लेगी आँसू मेरे
और आँख की पलकों पे 
इनायत होगी

मेरे आँसू 
उन्ही हथेलियों की आस मे हैं...

मगर ये जान के हैरत है के 
उन आँखों मे
मेरे आँसू का अक्स 
पलकों के बीच अटका है

अपनी पलकों से बढ़के 
आँसू मेरे पोछ दिए
तुम्हारी आँखों से अब 
आँसू मेरे बहते हैं

ऐसा भी कभी दुनिया मे होता है कहीं?
ऐसा भी कभी दुनिया मे होता तो नहीं!


Monday 22 October 2012

आहिस्ता


कभी तन्हाइयों मे उतार जाता हूँ
सर-ए- बाज़ार

मन की उन गहराइयों मे
जहाँ तुम्हारी बस्ती है
मेरी तो कल्पना है
सिर्फ़ तुम्हारी ही हस्ती है
उतार जाता हूँ
आहिस्ता...

और देखा करता हूँ
चुपचाप
बेहिस
तुम्हें
तुम्हारी आवाज़ की धनक के
सात रंग
अल्फ़ाज़ मे घुली मुस्कान की चीनी
और निगाहों की तेज़ पतंग
आहिस्ता...

ऐसा क्यूँ लगता है मुझे
के महसूस कर रही हो
तुम भी मुझे
अपनी रूह मे
अंजाने ही
जाड़े की चमकीली धूप तरह
आहिस्ता...

जी रही हो तुम मुझे
साँसों मे
वादियों की हल्की सहर सी
और साँस ले रहा हूँ मैं तुम में...
गहरी झील मे पतली लहर सी
आहिस्ता...

तब वहीं
उसी वक़्त
दिल से जो निकलती है
बेपरवाह सी
इक मुक़म्मल आह सी
वो कविता हो तुम मेरी...

वही कविता
जो पहले से दिल मे बसा करती थी
सदियों से
बस तुम्हे देख के जवान हुई
आज कल मे
इक पल मे
आहिस्ता...

अब तक कैसे जीता था
ये नन्हा सा दिल
जब तुम नहीं थी
ये सोचा करता है नादान
हर एक धड़कन के साथ
और सुर्ख़ लाल सा हो जाता है
शर्म-ओ-हया से
आहिस्ता!

Friday 12 October 2012

एकात्म का द्वैत


पर्वतों की ऊँचाइयाँ
और सागर की गहराइयाँ
एक सी हैं
बस एक हवा से हिली है
दूसरी पानी से गीली...

हौसलों की मुट्ठियाँ


मंज़िल मेरी उस ऊँचे
परबत पे है मसूरी के

रस्ते सीधे नही हैं
हवा कम हैं 
फेफड़ों मे...

कुहरा सफेद पपड़ी सा है 
आँखें जमी सी हैं
और काई की तह पे 
फिसलता चढ़ता हूँ...

मुट्ठियाँ भींचे
बढ़ता हूँ...

मुट्ठियों मे 
उस अंधी बच्ची ने 
कुछ सुपुर्द किया था
उसी के सहारे
चढ़ता हूँ...

बहुत जान है
उस जज़्बे मे
उस बच्ची के जज़्बे मे
जिसे मैं 
हौसला कहता हूँ...

हौसलों की  मुट्ठियों से
ज़िंदगी के परबत पे 
वार करता हूँ
पगडंडियाँ निकल आती हैं
उस बच्ची को याद करता हूँ
चढ़ता हूँ..

रिक्शेवाला


खड़े खड़े ही खींचा करता था
अब्दुल रिक्शेवाला

अंग्रेज़ी राज नही है अब
उसके बेटे को
जम्हूरियत ने
कुर्सी अता कर दी है...

जम्हूरियत और क्या देती है
कुर्सी के सिवाय!

आसरा


ज़िंदगी समंदर मे नाव सी है
ठहरी है, कभी चलती है
न डूबती है न पार लगती है!

समंदर मे पानी तो है
मगर नमकीन है
इससे कहीं प्यास बुझती है!

और इस नाव मे हम-तुम
अनजान सही, साथ होते हो तो
ज़िंदगी आस-पास लगती है

उम्मीदों की लहरें भी हैं
चार हाथों के चप्पू भी
पर वो तुम्हीं हो जिससे आस जगती है!

माँ और मैं


दिल भारी भारी सा लगने लगता है-
साँसे बोझिल हो जाती हैं

कभी कभी लगता है मुझको
मैं ज़िंदा हूँ दूर यहाँ
माँ की साँसों से...

दुनियादारी की भगदड़ से 
अलग कभी जब
आँखें करता हूँ मैं बंद

अक्सर ऐसा लगता है
माँ रोती है

आँसू उसके गिरते हैं 
मेरी आँखों से...

बेड़ियाँ


उसकी सर्द चीख से बहरे हुए सभी
इस वजह से शोर मे ठहरे हुए सभी

मेरे जवाबों से तसल्ली उन्हें कहाँ
कुएँ सावालात के गहरे हुए सभी

जम्हूरियत लाती है ग़ुलामी नई तरीन
सख़्त-ओ-चुस्त पहले से पहरे हुए सभी

सोच-ओ-ज़हन को भी दिया कोठरी मे डाल
ज़ख़्म पुराने नये हरे हुए सभी

सब को लगा मिल गयीं हैं मंज़िलें अज़ीम
दो पहर के बाद थे सहमे हुए सभी

नाचते फिरते रहे हाक़िम के इशारे
बेड़ियाँ शाम-ओ-सहर पहने हुए सभी

*स्वर*

Monday 8 October 2012

बस यूँ ही...

कुछ लोगों को मौत से डर नहीं लगता
तीर चुभता है पर रूह पे नहीं लगता

जवाब किसी खत का न मिला है, न मिलेगा ही
उन्हें पता है कि हमको बुरा नहीं लगता

काश ये सूरज मयस्सर हो कभी हर इक शै को
ऐसा मुमकिन है पर हर सुबह नहीं लगता

दुनियादारी के दाँव पेच सभी सीख चुके
नफ़े नुक़सान की बातों मे दिल नहीं लगता

इस मुसाफ़िर का अब सफ़र मे दिल नही लगता
रास्ते मे तो लगता है मंज़िल मे नहीं लगता

हर एक बच्चे की मुस्कान के हम हैं कायल
किसी भी बुत मे मगर अब ख़ुदा नहीं लगता

ज़ख़्म गर लाल हो तो उसको हरा कहते हैं क्यूँ
ज़ख़्म ये लाल है पर अब हरा नहीं लगता

जो बुरा लगता है दुनिया को खुद के चश्मे से
जो खुद करो कभी तो खुद बुरा नहीं लगता

मेरे ज़हन मे जो तस्वीर थी वो टूट गयी
उखड़ा हुआ दरख़्त फिर नहीं लगता

पड़ोस के शमशान से डर लगता है "स्वर"
घर के बुज़ुर्ग की मिट्टी से डर नहीं लगता !
 

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