Wednesday, 11 April 2012

कलम का सिपाही

वो बोलता नहीं कुछ भी 
बस लिखा करता है 
चुप चुप  सा रहता है 
कुछ कम दिखा करता है 

कुछ को लगा के मौन है वो 
कुछ को लगा के कौन है वो 

कोई पूछ ले तो कहता था 
"unknown" है वो...

वो भीड़ में शामिल है  
पर हिस्सा नहीं उसका 
वो खुद कहानी रचता है 
पर किस्सा नहीं उसका 

वो दिखेगा हर राह में 
पर मोड़ आने पे 
वो बोलेगा हर बात पे  
पर समय आने पे 

बस इंतज़ार करता है 
और सोचता है ये 
वक़्त कितना और है अब 
प्रलय लाने में...


Thursday, 5 April 2012

सरफरोशी की तमन्ना



इतने कायर भी  नहीं  हम 
मर तो जाएँ मुल्क पे कल 
मौत के बाद सोचते हैं 
और क्या रह जायेगा !

नाम पत्थर पर खुदा सा
इक गला माँ का रुँधा सा 

इक शहर मेरे बिना सा
इक मेडल सीने बिना सा

इक दफ़ा जनता का रेला 
हर दफ़ा बेमेल मेला 

हर दफ़ा बेमेल मेला 
याद उनकी है दिलाता

जोकि मिट्टी हो गए बस
इक अधूरी आन पे बस 

उनकी हसरत दम-ब-दम बस 
बोलें वन्दे मातरम बस 

सरफरोशी की तमन्ना 
उनकी हर इक साँस में बस 

और इक हम भी यहाँ हैं 
जोकि हर पल चीखते हैं


इतने कायर भी  नहीं  हम 
मर  तो  जाएँ  मुल्क  पे  कल 
मौत  के  बाद  सोचते  हैं 
और  क्या  रह  जायेगा !
और  क्या  रह  जायेगा ...




दुनिया का कोयला



जी करता है  
आग लगा दें ज़माने को 

फिर सोचते हैं 
क्या बचेगा कल जलाने को  !

अब सोचते हैं राख नहीं 
कोयला ही कर दें

काम आ जायेगी दुनिया
ठंडा चूल्हा जलाने को...

Wednesday, 4 April 2012

युद्ध-योग




हर राह को हर मोड़ को 
हर शख्स को घर जाने दो 

हर शाख को हर शाम को 
हर रात को ढल जाने दो 

लेकिन कटे न सिर यूँ ही 
जब सिर कटे झुक जाने दो 

सिर झुका के मौन हो
एकांत में रम जाने दो 

ले आग दिल में आँखों में  
हर नब्ज़ में घुल जाने दो 

दिखते हो तुम कुछ ख़ाक से 
बारूद का रंग आने दो 

कुछ और शोले घोल के 
ठंडा करो जम जाने दो 

कुछ राख ऊपर ओढ़ लो  
कुछ ज़हर सा चढ़ जाने दो 

दुश्मन तुम्हारा मोम है 
तुम आग हो भड़काने को 

फिर युद्ध को ललकार दो 
तैयार मर मिट जाने को

अबकी झुके न सिर कहीं 
जब सिर झुके कट जाने दो

तो देर है किस बात की 
जो होना है हो जाने दो !

जो होना है हो जाने दो...


( यह विचारधारा "मर्यादा" पुरुषोत्तम राम से कुछ आगे की है और "योगेश्वर" श्री कृष्ण से कुछ पहले की, कुछ कुछ  "मध्यम मार्ग" की ओर...यहाँ उल्लेखनीय है कि "मध्यम मार्ग" का अर्थ किंकर्तव्यविमूढ़ता या उदासीनता नहीं अपितु व्यावहारिक-सक्रिय-कर्म-योग है । इसमें भी "निर्णायक जय या पराजय" संभव है । यह युद्ध-योग है ;यहाँ मर्यादा और छल दोनों साथ साथ चलते हैं... )


Monday, 2 April 2012

सुनैना


        उसने सफ़ेद कुर्ती पहन रखी थी | बाल बँधे थे पर यहाँ वहाँ से कुछ बालों के रेशम की लड़ियाँ आँखों को ढकने की कोशिश में थी | आँखें एक किताब पर फिसल रही थीं | इसी का फायदा मेरी आँखें उठा रहीं थीं | फिर भी मैंने जी भर के देखने को टाल दिया | 
बस स्टॉप पे और भी लोग थे | उसके बगल की सीट खाली नहीं थी | उसका बैग अपनी हुकूमत जता रहा था | मैंने सोचा बैठ जाऊं क्या? लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी | मैंने सोचा थोड़ा फिर से देख ही लूँ क्या? इसी पशोपेश में था कि उसने सिर उठाया और देखा मुझे confuse सा | बाप रे ! इतनी सुंदर आँखें !
..... सुनैना !  तुम्हारा नाम मैंने सुनैना रखा है सुनैना...

और मैंने आँखें हटा कर उसके बैग पर टिका दीं | सुनैना को लगा कि मुझे बैठना है, उसने बैग उठा लिया लेकिन मेरी तरफ देखा नहीं |..... मैं भी गैरतमंद हूँ | मैंने भी मुँह फेर लिया और दिखाने की कोशिश की कि मुझे बस में इंट्रेस्ट है |

अगला दिन | मैं पाँच मिनट पहले आ गया था... सुनैना का इंतज़ार था | वो आई और फिर से वहीँ बैठ गयी | आज गुलाबी सी | बेहद शालीन और सुंदर ! हल्की हवा चली और उसकी ख़ुशबू सबा के साथ फैल गयी | आज भी उसका बैग उस पास वाली सीट पर रखा था |

मेरी आँखें सुनैना की सुंदर आँखों से हटें  तो कैसे ! मुझे लगा कि सब कुछ रुक जाये और मैं देख लूँ तुम्हे सुनैना तुम्हारी आँखों से | और कभी ऐसा हो कि तुम खुद को देखो मेरी आँखों से | आओ हम आँखें बदल लें लेकिन अगर तुम मेरी आँखें ले लोगी तो मैं क्या देखूँगा फिर, गर मेरे सामने तुम्हारी आँखें ही न हों |  

तभी सुनैना की आँखों ने मेरी आँखों की ये चीखें सुन लीं | सुनैना ने मुझे देखा और उसकी आँखों ने मेरी आँखों से पूछा- बैठोगे यहाँ ? बैग हटा लूँ ? मेरी आँखों ने "चुपचाप कहा"- हाँ | फिर सुनैना ने कल की ही तरह बैग उठा लिया और किताब में छुप गयी |


मैंने पैरों को रोकना चाहा पर चल दिया | इतनी बड़ी गलती ! पास में बैठ गए बुद्धूराम ! अब देखोगे कैसे? वहाँ दूर थे तो आराम से देख सकते थे |  सुनैना के बाल अब कुछ सूख गए थे | बालों से हल्की हवा ने उन्हें उड़ाया और फैला दिया पूरे चेहरे पर | मैंने आँखों से एक एक बाल को साफ़ किया उसके चेहरे से और फिर उसकी किताब में झाँका | क्या पढ़ रही हो सुनैना ? देखूं तो ज़रा मैं भी...

तभी किताब में मसरूफ़ मोहतरमा का बैग हाथ से फिसल गया | मेरी तरफ गिर गया ज़मीन पर | मैंने उठाना चाहा झटके से | सुनैना ने भी हाथ बढ़ाया | हमारे हाथ छू गए | बिजली सी चमक गयी मेरे ज़हन में ! और हम दोनों ने हाथ वापस खींच लिए |

स्पर्श का स्पंदन त्वरित स्फूर्ति से फ़ैल गया रोंए-रोंए में | सचमुच लोमहर्षक ! स्पंदन बढ़ चला दो दिशाओं में- एक मेरे हृदय की ओर....दूसरा साँसों में...| दोनों की गति बढ़ गयी | तेज़ रफ़्तार साँसें जैसे जेठ की जलती लू झिंझोड़ दे पूरे इलाके को; और उससे भी तेज़ धड़कने जो विस्मृत हैं किसी लय-ताल से | हृदय-स्पंदन का क्रमभंग जैसे मूसलाधार वर्षा के बीच गिरते भारी बर्फ के ओले... छत पर...बिना किसी क्रम आवाज़ करते हों... धड़धड़... धड़धड़... धड़धड़...

आँखें मिली फिर से | मेरी आँखों ने पूछा- सुनैना तुम मेरी तरह बर्ताव क्यों कर रही हो? तुम तो normal रहो atleast...| सुनैना की आँखों ने कहा- तुम रोज़ घूरते रहते हो normal  कैसे हो जाएँ? मुझे बैग उठाने दो...
मेरी आँखों ने कहा- नहीं नहीं मुझे उठाने दो... दोनों ने फिर से साथ में हाथ बढ़ाया और फिर से बिजली कौंध पड़ी | इस बार मैंने हाथ नहीं हटाया और बैग उठाकर सुनैना को थमा दिया  और सुनैना बोली- थैंक्स ! 

आवाज़ इतनी मीठी जैसे हवादार बारादरी में उठी हुई दहलीज पर रखी सितार तेज़ हवा से खुद ब खुद मद्धम सी बज उठे और उसकी आवाज़ बारादरी के मोटे खम्भों से टकराकर सरगम की दर्ज़नों लहरें पैदा कर दे | एक के बाद एक लहर और सुनने वाला भीग जाये, सराबोर हो जाये इन सरगम की हल्की लहरों से...|

मैंने मुस्कुराना चाहा जवाब में | शायद मैं मुस्कुराया भी था | याद नहीं | कैसे होता ! याद होने के लिए होश ज़रूरी होता है और होश में आने के लिए उसकी आँखों से कितनी मिन्नतें की मेरी आँखों ने !
"सुनैना जाने दो न ! मुझे होश के उस शहर में जहां मेरी दुनिया थी पहले.... तुम्हारे इस मदहोशी के शहर में मेरा क्या हाल हो रहा है- काश तुम्हे पता होता !  काश तुम इस मदहोशी के शहर में पाँव रखती कभी...मेरे हाथों पर से ही सही...तब तुम्हे पता चलता मेरा हाल | मुझे होश के उस शहर जाने दो न, सुनैना !"

सुनैना की आँखें बोलीं- जाओ न जहाँ जाना है | हमने कब रोका है |
बस यही तो बात है | ये सब बोल के तुम बाँध लेती हो हर दफ़ा अदा के उस बारीक मुलायम रेशमी धागों से जिन्हें मैं तोड़ नहीं पता |

मेरी मुस्कान के जवाब में क्या वो मुस्कायेगी ! ये सोच भी लिया मैंने, उसके मुस्काने से काफी पहले |
मेरी खामोशी ने उसकी मुस्कान को छूकर कहा- तुम हटो होंठों से...सुनैना के हल्के से होंठ तुम्हारे तले दबे हैं... कब से | चलो अब जाओ और पास के बगीचे में ताज़े फूल बनके महक फैलाओ, कुछ बिना फूल वाले पौधों में | होठों कि बाँसुरी खाली हो तो सुनैना कुछ बोले भी...इन होठों को हिलाए भी ! ए मुस्कान ! सुनैना बोलती भी होगी न? या केवल आँखें बोलती हैं उसकी ! बोलती क्या जी चीखती हैं और हमारी बोलती बंद हो जाती है वो आवाजें सुन के...
मुस्कान सुनैना के होठों से फिसलकर मेरे होठों पर आ गयी | उसकी मुकान अब मेरे होठों पर थी और इस तरह उसके मुस्कुराते होठों की लाली पहुँच गयी मेरे मुस्कुराते होठों तक | मुझे एहसास हुआ कि मैंने मुस्कान के ज़रिये उन होठों को चूम लिया है, हल्के से... और ये एहसास होते ही वो मुस्कान गायब हो गयी... हम दोनों के चेहरों से... मानो सुनैना ने भी मेरे चूमने की तासीर को महसूस कर लिया हो... उसी वक़्त!  
मुझे ठीक से याद है, मुस्कान उड़ी वहाँ से और मेरी खामशी की रुकने की पेशकश को ठुकराती हुई उड़कर आसमान में घुल गयी और काले बादल की शक्ल ले ली | दो बूँदें गिरीं फिर काले बादल से... पहली बूँद सुनैना पर और दूसरी मुझ पर...और दोनों जाग गए ! सपनों से निकालकर भाग गए !

हौसला


दुनिया को जूते की नोक पे 
सर को ऊँचे आसमान पे रखते हैं..

जलते अंगारे कई एक 
अपनी ज़बान पे रखते हैं ..

एक वादे पे हज़ार दफ़ा कुर्बां हों 
एक मुस्कान पे 
हथेलियों पे जान रखते हैं..

दौलत ना सही तो ना सही 
सब जानते हैं हम 
दौलत-ए-ईमान रखते हैं...

यश बचेगा बस अकेले



तुम थे अकेले हो अकेले 
जीत मिलती है अकेले 

सिंह रहते हैं अकेले 
घाव सहते हैं अकेले 

माँ जनमती है अकेले 
मृत्यु वरती है अकेले 

ध्वज फहरता है अकेले 
मन ठहरता है अकेले 

सूर्य जलता है अकेले 
शौर्य पलता है अकेले 

न थे तुम न ही रहोगे 
यश बचेगा बस अकेले !

यश बचेगा बस अकेले...



 

स्वर ♪ ♫ .... | Creative Commons Attribution- Noncommercial License | Dandy Dandilion Designed by Simply Fabulous Blogger Templates