Friday, 27 January 2012

कानों पे पलकें होतीं तो...

कानों  पे  पलकें  होतीं  तो 
शोर    गुल  में  सो  सकता  था ,
मकाँ  शहर  के बीच  सही  पर 
सन्नाटे  में  खो  सकता  था 


हल्की  सिसकीतीखी  चीखें 
नाज़ुक  नज़्मेंगहरी  ग़ज़लें,
इन  सब पे  पर्दा  करके  मैं 
नकली  सपने  बो सकता  था ।




आँखों  पे  पलकें  हैं  क्यूँकी 
आँखों  से  बारिश  होती  है,
आँखों  में  नींदें  और  सपने
आँसू  में  बह वो सकता  था ।


कानों  में  मीठी  सरगम  थी 
करवट  पर  गिर  जाती  थी,
कानों  पे  पलकें  होतीं  तो
बिन  तकिये  के  सो  सकता  था ।


कानों  पे  पलकें  होतीं  तो
कानों  पर  चश्मे  भी  होते 
उन  शीशों  से  घिरा  हुआ  मैं
दो-दो चश्मे ढो सकता था ।


मैंने  जो  सुनना  ना  चाहा  
उसने  जो  कुछ  नहीं  कहा  था,
कानों  पे  पलकें  ढककर  मैं 
सुन  सकता  कह वो सकता  था 



-स्वतःवज्र
  
 

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