कानों पे पलकें होतीं तो
शोर ओ गुल में सो सकता था ,
मकाँ शहर के बीच सही पर
सन्नाटे में खो सकता था ।
हल्की सिसकी, तीखी चीखें
नाज़ुक नज़्में, गहरी ग़ज़लें,
इन सब पे पर्दा करके मैं
नकली सपने बो सकता था ।
आँखों पे पलकें हैं क्यूँकी
आँखों से बारिश होती है,
आँखों में नींदें और सपने
आँसू में बह वो सकता था ।
कानों में मीठी सरगम थी
करवट पर गिर जाती थी,
कानों पे पलकें होतीं तो
बिन तकिये के सो सकता था ।
कानों पे पलकें होतीं तो
कानों पर चश्मे भी होते
उन शीशों से घिरा हुआ मैं
दो-दो चश्मे ढो सकता था ।
मैंने जो सुनना ना चाहा
उसने जो कुछ नहीं कहा था,
कानों पे पलकें ढककर मैं
सुन सकता कह वो सकता था ।
-स्वतःवज्र