Wednesday, 26 September 2012

बन्द-गला


तुम्हारे शहर कुछ भी यूँ ही नहीं होता 
जो दिल में है, ज़ुबां पे नहीं होता 

शहर कोतवाल अगर जाग जाता वक़्त पर 
जो भी हो रहा है वो नहीं होता 

हाथ घड़ी से बँधे हैं वक़्त के ग़ुलाम सब 
मैं यहीं हूँ मगर अक्सर यहाँ नहीं होता 

मैंने जो भी कहा तुमने गर सुना होता 
तो तुमने जो भी कहा है कहा नहीं होता  

पंख छोटे, तेज़ तूफाँ से डरा करते अगर 
तो परिंदों के लिए ये आसमाँ नहीं होता 

और बेबाक़ी से कहता बातें दिल की या ख़ुदा 
"बन्द-गला"* शायर ने गर पहना नहीं होता !


* काला जोधपुरी "बन्द-गला"- लोक सेवकों का औपचारिक परिधान, जिसको पहन के गला बन्द हो जाता है । 

Sunday, 23 September 2012

मेरा कमरा

दीवारों पे कागज़ मैंने चिपकाए हैं
कागज़ सारे सटे हुए हैं
मज़बूती देते हैं शायद
अब दीवारें नहीं गिरेंगी ।

छत के कोनों पे फ़ैले 
ये काले जाले
मकड़ी वाले
छत को दीवारों से बाँधे
मज़बूती देते हैं शायद
अब दीवारें नहीं गिरेंगी ।

कुछ कलमें बिन ढक्कन की
आवारा सी हैं 
कुछ  ढक्कन बिन कलमों के
बे मौत मरे हैं 

चंद किताबें खुली हुई सी
दिखती हैं यों
जैसे गाँव के खुले रहट हों
काला पानी स्याही का
अब सूख चुका हो

पर्स पड़ा है कोने में
नोट नहीं हैं
छेद है इसमें, छोटा सा एक
सिक्के इसमें खूब भरे हैं
सिग्नल के बूढ़े बाबा के
बोरे जैसा
पर्स पड़ा है ...

गीले कपड़े, रिसता पानी
फर्श पे शीशा बना रहा है
उस शीशे में पंखे का
वो पंख भी दिखता
जो टेढ़ा है

मेज के नीचे जूते हैं
दो जोड़ी जूते
एक पुराना है
उसकी अब उम्र हुई
उसके फीतों के कोने
अब खुले से हैं
चेहरे पर बारीक झुर्रियां
ठोकर खाकर बड़ी हुई हैं
बीते दिन की

साथ में उसके रखा हुआ है
नया नवेला आज का जूता
सोच रहा है फर्श का पानी
उसकी उम्र कहीं न ले ले

बूढ़े जूते ने फिर बढ़कर
अपने फैले से फीतों में
पानी सारा सोख लिया !

इंसान का क्या है 
बस चलता ही जाता है 
सफ़र में घिसते 
जूते हैं 
जैसे कल का दिन भी 
तो जूता ही है ना 
उम्र के पैर में बँधा हुआ 
वो कल का जूता 

पूरे कमरे में 
कपड़े बिखरे हैं ऐसे 
एक मुहल्ले में हर मज़हब के बाशिंदे
साथ नहीं रह सकते जैसे 
ये सारे कपड़े मेरी इस अलमारी में 
हरगिज़ साथ नही रह सकते 
बिल्कुल वैसे

सिरहाने की ओर का चद्दर 
मटमैला है 
पैताने की ओर ये चादर 
स्याह सा है 

कुछ घिसा हुआ है 
इक बाजू पैबंद लगा है 
उस बाजू पे फटा हुआ है 
जाने क्यूँ नक़्शे की याद 
दिला जाता है 
सैंतालिस के बाद के हिन्दुस्तान का नक्शा 
हर कोने से फटा हुआ है

मेज पे है कुछ पीले कागज़ 
इनपे मैंने 
अपने मन की बात लिखी थी 
कुछ कवितायें कल परसों को 
कुछ कवितायें 
आधी आधी रात लिखी थीं 

कुछ ग़ज़लें गहरी बातों की 
कुछ नज़्में नाज़ुक यादों की 

सोचा करते थे कागज़ 
अनमोल बिकेंगे 
अब खुद को पढ़कर लगता है 
इन्फ्लेशन में  के दाम बढ़ें तो 
बेच ही डालूँ 
लिखे हुए कागज़ 
रद्दी के मोल बिकेंगे 

और तुम्हारी
इक तस्वीर लगा रखी है

तुमसे उस दीवार की वो
बेबाक दरारें छुप जाती हैं
आईना भी हैं ये मेरा
उन आँखों के शीशों में

खुद की सूरत भी
दिख जाती है।

इन दो-तीन बहानों से
अब तक याद सजा रखी है
इक तस्वीर लगा रखी है।

कमरा पहली नज़र में मेरी 
कथा बताता 
इक पैसेंजेर ट्रेन के 
जनरल डिब्बे जैसा

कमरा पहली नज़र में अपनी 
व्यथा बताता...

*स्वर*


Thursday, 20 September 2012

लोग कहते हैं

लोग कहते हैं दिखाई क्यूँ नहीं देते मियाँ
हम ये कहते हैं के चश्मे साफ़ तो कर लीजिये

लोग कहते हैं चलो जंतर पे मंतर फूँकने
हम ये कहते हैं के दिल को पाक ही कर लीजिये

लोग कहते हैं वजीर-ए -मुल्क़ ही नाक़ाम है
किसने रोका है ये करतब आप ही कर लीजिये

लोग कहते हैं वो करते इश्क हैं बेइंतेहा
हम ये कहते हैं कभी इज़हार भी कर लीजिये

लोग कहते हैं ये पत्थर ख़ूबसूरत है बहुत
तोड़कर इनको भी बुत तैयार मत कर लीजिये

लोग कहते हैं तुम्हारे शेर चुभते हैं बहुत
हम ये कहते हैं हमें भी साँस लेने दीजिये

*स्वर*

Wednesday, 19 September 2012

फ़ानूस शाम के बिन शम'ए जला करते हैं
पतंगे ठण्डे में बेमौत मरा करते हैं 

है सबको प्यार अपने भाई से पड़ोसी से 
सबके नाखून अनायास बढ़ा करते हैं 

बूढ़े माली की मौत हो गयी इक अरसा हुआ 
अब भी गुलदान में ये फूल दिखा करते हैं

जाने कहाँ से बरसता है कब बरसता है वक़्त 
ये दरिये वक़्त के हर रोज़ बहा करते हैं

हर दफ़ा चोर को लगा है के मैं मुंसिफ हूँ 
हर दफा चोर मुझे खुद से, लगा करते हैं 

कौन कहता है कि मंहगाई है मेरे शायर
हमारे शेर तो सस्ते में बिका करते हैं

*स्वर*
 

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