Tuesday, 3 January 2012

मैंने अपना खून चखा था !

 
वो  सिकंदर  महान  जिसने ,
इस  दुनिया  को  रौंद  रखा  था ,
गर्म  लहू  का  कितना  प्यासा ,
रण  में  वो कितना  भूखा  था-
जब जब  उसने पैर रखा  था |

कल मैं कुछ बेताब रहा कुछ ,
उँगली से कल खून  रिसा था ,
मैंने उसको काट रखा  था ,
सिकंदर  की प्यास समझने को-
मैंने  अपना  खून  चखा  था !

सोचा था  मीठा होगा पर ,
मुझको वो  नमकीन लगा था ,
उम्मीद लगी थी जिस ज़ायके की ,
उसका कोई निशाँ नहीं था !
मैं गुत्थी सुलझा न सका था |

अब बात समझ आई है मुझको ,
क्यों उसको  मीठा  लहू  लगा  था ,
और मुझको  बद-स्वाद लगा  था ,
उसने  दुनिया  का  लहू  पिया था ,
पर  मैंने  अपना  खून  चखा  था !
 
 

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