Monday, 16 January 2012

तुम मेरा इक ख़याल हो हल्का गुलाबी : पांचवी नज़र चंदा की


कहाँ छुपी हो ?
ज़रा क़रीब आओ और
सुनो जी चंदा !
मैं तुम्हारे खयालों में हूँ
और तुम  मेरा  इक  ख़याल  हो  
हल्क़ा  गुलाबी !

हर उस वक़्त
जब तुम खामोश रहती हो
मुझे पता है
अपने दिल से
बातें करती हो
वो बातों के  शोख़ इरादे
मुझे पता  हैं चंदा !

क्योंकि
मैं तुम्हारे खयालों में हूँ
और तुम  मेरा  इक  ख़याल  हो  
हल्क़ा  गुलाबी !


है आरज़ू सी
नज़्म-ओ-ग़ज़ल लिखने की
वीराना कोई
इस गरज से  ढूँढा है
मगर यहाँ भी
तुम्ही काबिज़ हो 
तुम्हारी यादें-हंसी-बातें-वफ़ा 
घेरे हैं
ये  कैसी ज़ुम्बिश है !
के मैं लिखूँ कैसे !!

के 
मैं तुम्हारे खयालों में हूँ
और तुम  मेरा  इक  ख़याल  हो  
हल्क़ा  गुलाबी !


चंदा !
यूँ तो आदत नहीं है
मुझको खफा होने की
मगर वजह है  एक
मेरे ऐसा करने की
के  तुम  मनाओगी
क़रीब  आओगी
ये  राज़ आम मगर
शाम -ओ -सहर होता है
जब  वो
मुस्कान-अदा-जुल्फ़-ओ -नज़र
मिलते हैं 
मैं  भूल जाता हूँ के
मुझको  खफा  भी  होना  था !
मुझे  पता है  तुम्हे
ये इल्म-ए-राज़
कैसे  है

क्योंकि
मैं तुम्हारे खयालों में हूँ
और तुम  मेरा  इक  ख़याल  हो  
हल्क़ा  गुलाबी !


कहो तो
मेरा-तुम्हारा
जो  ये  रिश्ता है
हर इनकार-ओ-इक़रार से
ऊपर क्यूँ है  !
तुम  पहले से  ज़ियादा “स्वतः” करीब क्यूँ  हो !

मुझे  पता  नहीं-
मेरे  अल्फाज़ मेरे  एहसासों से
हर  दफ़ा 
हार
क्यूँ जाते हैं !
लेकिन शायद तुम्हे  तो  होगा चंदा !

क्योंकि
मैं तुम्हारे खयालों में हूँ
और तुम  मेरा  इक  ख़याल  हो  
हल्क़ा  गुलाबी !


ये  सुनके रुई से  बादलों में  
घुल गयी चंदा
बेवजह बादलों  की 
क़ीमतें बढ़ा दी
हर  एक  बूँद चांदनी से
मैं  भीग गया
और  चंदा  मुस्कुरा दी ......


-स्वतःवज्र
 

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