कहाँ छुपी हो ?
ज़रा क़रीब आओ और
सुनो जी चंदा !
मैं तुम्हारे खयालों में हूँ
और तुम मेरा इक ख़याल हो
हल्क़ा गुलाबी !
हर उस वक़्त
जब तुम खामोश रहती हो
मुझे पता है
अपने दिल से
बातें करती हो
वो बातों के शोख़ इरादे
मुझे पता हैं चंदा !
क्योंकि मैं तुम्हारे खयालों में हूँ
और तुम मेरा इक ख़याल हो
हल्क़ा गुलाबी !
है आरज़ू सी
नज़्म-ओ-ग़ज़ल लिखने की
वीराना कोई
इस गरज से ढूँढा है
मगर यहाँ भी
तुम्ही काबिज़ हो
तुम्हारी यादें-हंसी-बातें-वफ़ा
ज़रा क़रीब आओ और
सुनो जी चंदा !
मैं तुम्हारे खयालों में हूँ
और तुम मेरा इक ख़याल हो
हल्क़ा गुलाबी !
हर उस वक़्त
जब तुम खामोश रहती हो
मुझे पता है
अपने दिल से
बातें करती हो
वो बातों के शोख़ इरादे
मुझे पता हैं चंदा !
क्योंकि मैं तुम्हारे खयालों में हूँ
और तुम मेरा इक ख़याल हो
हल्क़ा गुलाबी !
है आरज़ू सी
नज़्म-ओ-ग़ज़ल लिखने की
वीराना कोई
इस गरज से ढूँढा है
मगर यहाँ भी
तुम्ही काबिज़ हो
तुम्हारी यादें-हंसी-बातें-वफ़ा
घेरे हैं
ये कैसी ज़ुम्बिश है !
के मैं लिखूँ कैसे !!
के मैं तुम्हारे खयालों में हूँ
और तुम मेरा इक ख़याल हो
हल्क़ा गुलाबी !
चंदा !
यूँ तो आदत नहीं है
मुझको खफा होने की
मगर वजह है एक
मेरे ऐसा करने की
के तुम मनाओगी
क़रीब आओगी
ये राज़ आम मगर
शाम -ओ -सहर होता है
जब वो
मुस्कान-अदा-जुल्फ़-ओ -नज़र
मिलते हैं
मैं भूल जाता हूँ के
मुझको खफा भी होना था !
मुझे पता है तुम्हे
ये इल्म-ए-राज़
कैसे है
क्योंकि मैं तुम्हारे खयालों में हूँ
और तुम मेरा इक ख़याल हो
हल्क़ा गुलाबी !
कहो तो
मेरा-तुम्हारा
जो ये रिश्ता है
हर इनकार-ओ-इक़रार से
ऊपर क्यूँ है !
तुम पहले से ज़ियादा “स्वतः” करीब क्यूँ हो !
मुझे पता नहीं-
मेरे अल्फाज़ मेरे एहसासों से
हर दफ़ा
हार क्यूँ जाते हैं !
लेकिन शायद तुम्हे तो होगा चंदा !
क्योंकि मैं तुम्हारे खयालों में हूँ
और तुम मेरा इक ख़याल हो
हल्क़ा गुलाबी !
ये सुनके रुई से बादलों में
घुल गयी चंदा
बेवजह बादलों की
क़ीमतें बढ़ा दी
हर एक बूँद चांदनी से
मैं भीग गया
और चंदा मुस्कुरा दी ......
-स्वतःवज्र
ये कैसी ज़ुम्बिश है !
के मैं लिखूँ कैसे !!
के मैं तुम्हारे खयालों में हूँ
और तुम मेरा इक ख़याल हो
हल्क़ा गुलाबी !
चंदा !
यूँ तो आदत नहीं है
मुझको खफा होने की
मगर वजह है एक
मेरे ऐसा करने की
के तुम मनाओगी
क़रीब आओगी
ये राज़ आम मगर
शाम -ओ -सहर होता है
जब वो
मुस्कान-अदा-जुल्फ़-ओ -नज़र
मिलते हैं
मैं भूल जाता हूँ के
मुझको खफा भी होना था !
मुझे पता है तुम्हे
ये इल्म-ए-राज़
कैसे है
क्योंकि मैं तुम्हारे खयालों में हूँ
और तुम मेरा इक ख़याल हो
हल्क़ा गुलाबी !
कहो तो
मेरा-तुम्हारा
जो ये रिश्ता है
हर इनकार-ओ-इक़रार से
ऊपर क्यूँ है !
तुम पहले से ज़ियादा “स्वतः” करीब क्यूँ हो !
मुझे पता नहीं-
मेरे अल्फाज़ मेरे एहसासों से
हर दफ़ा
हार क्यूँ जाते हैं !
लेकिन शायद तुम्हे तो होगा चंदा !
क्योंकि मैं तुम्हारे खयालों में हूँ
और तुम मेरा इक ख़याल हो
हल्क़ा गुलाबी !
ये सुनके रुई से बादलों में
घुल गयी चंदा
बेवजह बादलों की
क़ीमतें बढ़ा दी
हर एक बूँद चांदनी से
मैं भीग गया
और चंदा मुस्कुरा दी ......
-स्वतःवज्र