Friday, 20 January 2012

मेरा घर कहाँ है...



( ये उस डिब्बे को केंद्र करके लिखी थी जो हमारे साथ पूरे 9 दिन रहा... हम 40 रेलवे प्रोबेश्नेर्स के साथ साथ गया, घूमा और लौटकर वापस वड़ोदरा आया )

मैं लहरों पे गया था
किनारों पे भी
पहाड़ों पे भी 
दूर गाँवों में भी 
मैंने अपना रेल का डिब्बा 
वही छोड़ दिया था
डिब्बे में अपना
चद्दर भी छोड़ दिया था
सफ़ेद सा ।
और सारा सामान भी 
जो मुझे अज़ीज़ था ।

शुरू में 
मुझे डिब्बे की याद नहीं थी 
सामन की चिंता थी कुछ
हल्की सी...

लहरों से किनारों तक
पहाड़ों से गाँवों तक
वास्को के स्टेशन पर खड़ा 
मेरा रेल का डिब्बा मुझे
याद नहीं आया

अज दो दिन बाद 
मैं कुलेम स्टेशन पे खडा हूँ
उसी डिब्बे के इंतज़ार में
जिसमे मेरा 
सिकुड़ा हुआ सफ़ेद चद्दर 
और बे-तरतीब सा सामान है 
अब जब वो इंजन में बँधकर 
आ रहा है
चलके पटरियों पे धीरे से
वो मुझे देख के 
आवाज़ नहीं दे रहा है 
फिर भी ऐसा लगा 
कि ऐसा है...
कुछ सुकून सा क्यूँ है ! 
मुझे पता है 
सामान तो मेरा 
महफूज़ ही होगा ।

डिब्बे के क़रीब आके 
रुकने का वो इंतज़ार क्यूँ है !
अंदर आके "घर सा" 
कुछ महसूस हुआ है
मैं वो सुकून महसूस
क्यूँ कर रहा हूँ
जो मैंने घर में जिया था !
ये मेरा घर तो नहीं !
और अगर ये रेल का डिब्बा 
या ऐसे बाक़ी सारे सर-अंज़ाम 
मेरा घर हैं 
तो वो क्या था जिसमें 
मैं ता-उम्र रहा अबतक !
और अगर वो ही घर है
तो आज से 
मैं खुद को 
बेघर महसूस करने लगा हूँ....

असल में
सवाल ये नहीं कि मेरा घर कहाँ है
सवाल ये है के मैं आज कहाँ  रहता हूँ...

-स्वतःवज्र ( 10 .01 .12 कुलेम )
 

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