Friday, 24 May 2013

गर मैं कुछ ऐसा कर पाऊँ



क्लाइमेट चेंज के मंच सजे 
हैं ग्रीन ग्रोथ के अधिवक्ता
हैं सावन के अंधे सारे
जिन्हें दीखे सब कुछ हरा-हरा

गाँवों के सूखे चेहरों की
कालिख अगर मिटा पाऊं
तो मानूँगा मैं भी कुछ हूँ
गर मैं कुछ ऐसा कर पाऊँ

वे छोटे लड़के गंदे से
दिन भर जो कचरा बिनते हैं
चौराहों पर फुटपाथों पर
फेंके हुए सिक्के गिनते हैं

उन कूड़े वाले हाथों में
गर कागज़ कलम थमा पाऊं
तो मानूँगा मैं भी कुछ हूँ
गर मैं कुछ ऐसा कर पाऊँ

मैं मुखर निडर आलोचक हूँ
सच कहने का दम भरता हूँ
वाणी से गरल उगलता हूँ
सच कहने से कब डरता हूँ !

गर खुद की निंदा के दो "स्वर"
बिन क्रोधित हुए पचा पाऊँ
तो मानूँगा मैं भी कुछ हूँ
गर मैं कुछ ऐसा कर पाऊँ
 

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