Monday, 30 January 2012

सबब नामालूम...

पहुंचे नहीं मंज़िल पे
कोई एक भी कहीं 
रस्ते वहीँ पड़े पड़े 
सड़ते ही क्यूँ गए  ?


चिपके रहे सूखे से काँटे
देर तक कहीं
सब हरे पत्ते शजर से 
झड़ते ही क्यूँ गए ?

जाती हुई लहरों पे था 
बहना बहुत आसाँ
आती हुई लहरों से हम 
लड़ते ही क्यूँ गए ? 

हर सही बात पे सौदा करके 
हर गलत बात पे 
ज़हीन लोग 
अड़ते ही क्यूँ गए ? 

मुझे थी झूठ बोलने में 
महारत हासिल
जब भी सच बोला सरे आम 
वो पकड़ते ही क्यूँ गए ?

रोमाँ-ओ-मिस्र के शहरों 
की खुदाई करके
मुर्दे शहर के, ज़मीं में 
गड़ते ही क्यूँ गए ? 

चर्चा-ए-क़त्ल कम हुए 
अच्छा हुआ चलो
क़त्ल-ए-आम शहर में मगर 
बढ़ते ही क्यूँ गए ? 

सारे खतों में सादे कागज़
मजमून-ए-खामशी 
फिर वो , सभी मेरे वो ख़त 
पढ़ते ही क्यूँ गए ? 

था हौसला जुनून भी था 
कामरान थे
ज़ीने सभी नाक़ामी के 
चढ़ते ही क्यूँ गए ?

हर बार सोचा सुलह कर लें 
दोस्ती करें
हर बार मेरे यार 
झगड़ते ही क्यूँ गए ? 

दुनिया की सारी ख़्वाहिशें 
पूरी हुईं अगर
मंदिर की सारी चौखटें 
रगड़ते ही क्यूँ गए ? 

तारीख जानती है
मंसूबा-ए-मज़हब
झूठे किस्से भाई चारे के  
गढ़ते ही क्यूँ गए ?

(शजर- पेड़, ज़हीन- बुद्धिमान,  मजमून-ए-खामशी- ख़ामोशी का सन्देश,  तारीख- इतिहास, मंसूबा-ए-मज़हब- धर्म के मंसूबे )


-स्वतःवज्र

"चुनाव में नुचाव" : U.P. असेम्बली इलेक्शंस

हाथी वाले आए बोले-
हाथी बड़े काम का है,
ये गणेश है ये विघ्न-
नाश कर देता है ।

तिलक लगाता है 
तराजू भी संभाले है ये 
मौक़ा पड़ने पे 
तलवार भी उठाता है ।

वोट तुम हमीं को देना 
कुरसी हमीं को देना
"पत्थरों का हाथी" 
ये ऐलान करे देता है-

पुलिस हमारी है के 
सोंटा भी हमारा ही है
पोटा लगा के ये हवा 
संट कर देता है । 

"हाथ वाले" आए बोले-
हाथ बड़े काम का है 
हाथ गर मिलाएगा 
तरक्की चुन लेगा तू ।

तेरे पास दो ही 
ऑप्शंस हैं जी बुद्धूराम !
या तो तू मरेगा 
या नरेगा चुन लेगा तू । 

वोट तुम हमीं को देना 
कुरसी हमीं को देना
सुन "युवराज" ये 
ऐलान कर देता है-

जीतेगा तो प्यार से 
ये गाल सहलाए वरना 
"टू-जी" का कन्टाप 
गाल लाल कर देता है ।

"साइकल वाले" आये बोले-
बाकी सारे पानी कम हैं
लोहे का नहीं जी ये तो 
लोहिया का आइटम है ।

पहिया इक विकास का है 
दूसरा भड़ास का है
दोनों को मिला के ही 
समाजवाद बनता है ।

वोट तुम हमीं को देना 
कुरसी हमीं को देना
लाल टोपी आज ये 
ऐलान कर देता है ।

जीत गया तो समाजवाद 
का विकास होगा 
वरना तो विरोध और 
"मसाजवाद" बनता है ।

"फूल वाले" आये बोले-
फूल बड़े काम का है
"लाल-कृष्ण-पुष्प" है 
"अटल-सुगंध" देता है

"इण्डिया शाइनिंग" कराता 
खूब "माइनिंग" कराता  
लच्छेदार भाषण का 
प्रबंध कर देता है ।

वोट तुम हमीं को देना 
कुरसी हमीं को देना
"पी एम इन वेटिंग" ये 
ऐलान कर देता है ।

सीयम कौन बनेगा ये 
किसी को पता नहीं पर
अयोध्या के मंदिर की 
ज़ुबान पक्की देता है ।

आज का वोटर है शाणा
आज का वोटर है चालू 
बुद्धि और विवेक से 
बवाल कर देता है ।

जानता है इनमें से 
कोई तो एक जीतेगा ही
अपनी जेब भारी 
उल्लू सीधा कर लेता है।

कहीं से साड़ी जुगाड़ी 
कहीं से ताड़ी जुगाड़ी
कहीं से मुद्रा कहीं 
गाड़ी जुगाड़ लेता है ।

चारों ओर खिंचाव में
चुनाव के नुचाव में
रोटी सेंक लेता है
पुलाव भर लेता है ।

रोटी सेंक लेता है
पुलाव भर लेता है ।
 

-स्वतःवज्र

सबब नामालूम...



पहुंचे नहीं मंज़िल पे
कोई एक भी कहीं 
रस्ते वहीँ पड़े पड़े 
सड़ते ही क्यूँ गए  ?

चिपके रहे सूखे से काँटे
देर तक कहीं
सब हरे पत्ते शजर से 
झड़ते ही क्यूँ गए ?

जाती हुई लहरों पे था 
बहना बहुत आसाँ
आती हुई लहरों से हम 
लड़ते ही क्यूँ गए ? 

हर सही बात पे सौदा करके 
हर गलत बात पे 
ज़हीन लोग 
अड़ते ही क्यूँ गए ? 

मुझे थी झूठ बोलने में 
महारत हासिल
जब भी सच बोला सरे आम 
वो पकड़ते ही क्यूँ गए ?

रोमाँ-ओ-मिस्र के शहरों 
की खुदाई करके
मुर्दे शहर के, ज़मीं में 
गड़ते ही क्यूँ गए ? 

चर्चा-ए-क़त्ल कम हुए 
अच्छा हुआ चलो
क़त्ल-ए-आम शहर में मगर 
बढ़ते ही क्यूँ गए ? 

सारे खतों में सादे कागज़
मजमून-ए-खामशी 
फिर वो , सभी मेरे वो ख़त 
पढ़ते ही क्यूँ गए ? 

था हौसला जुनून भी था 
कामरान थे
ज़ीने सभी नाक़ामी के 
चढ़ते ही क्यूँ गए ?

हर बार सोचा सुलह कर लें 
दोस्ती करें
हर बार मेरे यार 
झगड़ते ही क्यूँ गए ? 

दुनिया की सारी ख़्वाहिशें 
पूरी हुईं अगर
मंदिर की सारी चौखटें 
रगड़ते ही क्यूँ गए ? 

तारीख जानती है
मंसूबा-ए-मज़हब
झूठे किस्से भाई चारे के  
गढ़ते ही क्यूँ गए ?

(शजर- पेड़, ज़हीन- बुद्धिमान,  मजमून-ए-खामशी- ख़ामोशी का सन्देश,  मंसूबा-ए-मज़हब- धर्म के मंसूबे )


-स्वतःवज्र

Saturday, 28 January 2012

दिल से निकले तो सही...



यहाँ वो नहीं है ना सही
उसकी कमी बैठी हुई है
 इक मेरा एहसास काफ़ी है
दिल से निकले तो सही...

परिंदे भूखे है भूखे सही
जीने को इनके, अब्र में
 इक ऊँचा परवाज़ काफ़ी है
दिल से निकले तो सही...

के चिटके हैं शहर के 
सारे  शीशे बिन पत्थर 
 इक मेरी आवाज़ काफ़ी है
दिल से निकले तो सही...

बज़्म-ए-मौसीक़ी में 
कोई साज़ न हो न सही 
 इक मेरा वो राज़ काफ़ी है
दिल से निकले तो सही...

पीठ में खंजर गड़ा हो
फ़िक्र-ए-अंजाम हो न हो
 इक मेरा आग़ाज़ काफ़ी है
दिल से निकले तो सही...



(अब्र- बादल, परवाज़- उड़ान, बज़्म-ए-मौसीक़ी- संगीत की महफ़िल, आग़ाज़- शुरुआत, साज़- वाद्य यंत्र  )

-स्वतःवज्र 

¤ चार यार ¤

मेरा नाम है धोखा !
आइये तारुफ़ करवाएं
अपने पुराने तीन दोस्तों से
ये अदावत है
ये  बगावत है
ये  बेवफ़ाई ,
सब अज़ीज़ हैं मुझे !

इसीलिए इन्हें
धोखा  देना चाहता हूँ ..
मगर इनसे अदावत
बगावत
और बेवफ़ाई ,
इनके और  भी
करीब ले आती है ..

पीछा छुड़ाऊँ तो कैसे ?

मुझे  यारी
मुहब्बत-ओ-वफ़ादारी
आते नहीं ..

मेरे नए दोस्त बनें
तो  आख़िर बनें  कैसे ?

चलो फिर से
उन्ही पुराने
तीन  दोस्तों  को
धोखे दें ..

अदावत  के
बग़ावत  के
बेवफ़ाई  के
धोखे !

मगर  इस बार
धोखेबाज़ी होगी
इंसानी फ़ितरत के  मद्देनज़र,
यारी
मुहब्बत-ओ-वफ़ादारी
के  वरक में
पोशीदा करके !

(पोशीदा -covered, वरक - cover, layer)

-स्वतःवज्र

Friday, 27 January 2012

मोड़ वाले रास्ते

चलो कुछ दूर साथ चलें...
मुझे सीधी राहों में 
चक्कर आ जाते हैं
मोड़ वाले रास्ते 
पसंद हैं मुझे

चलो कुछ दूर साथ चलें
उस मोड़ तक
जहाँ मुड़ना है तुम्हें 

वहाँ उस तीखे तल्ख़ मोड़ पे
जहाँ तुम्हे हमसफ़र बदलने हों 
जहाँ तुम्हे कुछ चेहरे बदलने हों
मुझे कुछ नक़ाब पहनने हों    

मगर उस मोड़ में 
अभी कुछ देर है
चलो कुछ दूर साथ चलें
उस मोड़ तक !

मुझे तुम्हारे जाने का 
ग़म क्यूँ हो 
आने की ख़ुशी थी
उस मोड़ पे
जब तुम मिले थे
वो भी तो इक मोड़ ही था
पर तल्ख़ न था...

बीच के सारे मोड़
मुझे याद नहीं 
मुड़ने के एहसास, 
किनारे के बाशिंदे, 
पेड़ों की छाया, 
तेज़ धूप की लपटें, 
मेरे तलवे में गड़ा नुकीला काँटा, 
मुझे याद नहीं
तुम याद रहोगे
हर मोड़ पर 
जब मैं अपना खाली हाथ देखूँगा
जिस में तुम्हारी हथेली की मेहँदी 
के निशाँ न सही 
ख़ुश्बू के कतरे ही सही
मौजूद होंगे 
हाथ न सही ख़ुश्बू की ही बात चले
चलो कुछ दूर साथ चलें

लो मेरी इन मुड़ी हुई बातों में
पता ही नहीं चला और
तुम्हारा मोड़ आ गया 

वैसे तुम्हारा ये तल्ख़ मोड़ 
काफी पहले आ गया था
काफी पहले
उस सीधी सपाट राह पर...
जब तुमने हाथ छोड़कर 
उँगली पकड़ ली थी 

वैसे सीधे रस्तों में भी 
हर कदम 
मोड़ ही तो होते हैं

ज़रूरी नहीं की मोड़ दोनों के लिए हो
एक के मुड़ने की कोशिश
दूसरे को मुड़ने का एहसास दे देती है...
वो मोड़ असल में तभी आ गया था 
जब तुमने अपनी निगाहें 
मेरी निगाहों से निकालकर 
रास्तों में उड़ेल दी थीं 

जब पहली बार तुम्हे लगा था
की काश यहाँ मोड़ होता
और तुम मुड़ सकते
मेरा हाथ छुड़ाकर
वहीं उसी जगह तो वो मोड़ था
बस आने में थोड़ी देर हुई   

वो मोड़ तभी आ गया था
जब मेरे हिचकी लेने पर
तुम्हे ताज्जुब हुआ था
क्योंकि तुमने तो याद 
किया नहीं था...

जब चाय का मेरा जूठा प्याला 
तुमने पिया नहीं था... 

जब मेरे ज़ोर से बोलने पर 
तुमने मेरे हाथ को दबाया नहीं था 
धीरे से...

जब मेरे अल्फाज़ की तलाशी ली थी 
तुम्हारे कानों ने
और यकीन को टाल दिया था...  

जब तुम्हें छुए बिना तुम्हे गुदगुदी नहीं हुई थी
और न छूने पर दर्द नहीं हुआ था...

जब मेरे फ़साने लफ़्ज़ों में तब्दील हो गए थे
और तुम्हारे लफ्ज़ हर्फ़ों में...
जब तुम्हारे अंदाज़ से ज़ियादा 
तुम्हारी आवाज़ बदल गयी थी... 

जब तुम्हे मुझ पर यकीं करने को
काफी देर तक 
आँखों में सच का सबब 
खोजना पड़ा था...

जब मुझे तुमसे झूठ कहने से पहले
सोचना पड़ा था...

और जब तुम्हे सच सुनने के लिए 
मुझसे कहना पड़ा था...

जब मेरे आँसुओं से केवल 
तुम्हारा कंधा भीगा था
मन नहीं...

जब मेरी हंसी से केवल...
छोडो न...जाने दो...

लो मेरी इन मुड़ी हुई बातों में
पता ही नहीं चला और
तुम्हारा मोड़ आ गया 

वैसे तुम्हारा ये तल्ख़ मोड़ 
काफी पहले आ गया था
काफी पहले
उस सीधी सपाट राह पर...

इस मोड़ तक साथ चलने का 
और होने का 
शुक्रिया किसे दूँ ?
तुम्हें या उस मोड़ को
जिसने हमें मिलाया था 
उस कुछ कम तल्ख़ मोड़ पे....   

साथ न सही शुकराने की ही बात चले
चलो कुछ दूर साथ चलें

 
-स्वतःवज्र 


कानों पे पलकें होतीं तो...

कानों  पे  पलकें  होतीं  तो 
शोर    गुल  में  सो  सकता  था ,
मकाँ  शहर  के बीच  सही  पर 
सन्नाटे  में  खो  सकता  था 


हल्की  सिसकीतीखी  चीखें 
नाज़ुक  नज़्मेंगहरी  ग़ज़लें,
इन  सब पे  पर्दा  करके  मैं 
नकली  सपने  बो सकता  था ।




आँखों  पे  पलकें  हैं  क्यूँकी 
आँखों  से  बारिश  होती  है,
आँखों  में  नींदें  और  सपने
आँसू  में  बह वो सकता  था ।


कानों  में  मीठी  सरगम  थी 
करवट  पर  गिर  जाती  थी,
कानों  पे  पलकें  होतीं  तो
बिन  तकिये  के  सो  सकता  था ।


कानों  पे  पलकें  होतीं  तो
कानों  पर  चश्मे  भी  होते 
उन  शीशों  से  घिरा  हुआ  मैं
दो-दो चश्मे ढो सकता था ।


मैंने  जो  सुनना  ना  चाहा  
उसने  जो  कुछ  नहीं  कहा  था,
कानों  पे  पलकें  ढककर  मैं 
सुन  सकता  कह वो सकता  था 



-स्वतःवज्र
  

कलम की मौत

कलम  का ढक्कन 
अलग  पड़ा  था 
निब  पूरी  गीली  थी 
लाल  स्याही  पूरे  कागज़  पे  
फ़ैली  थी
और  फ़ैल  रही  थी
जैसे  गला  कटा  हो 
और  खून  ख़त्म 
न  हो  रहा  हो  कलम  का 
आज  फिर  कई  शब्द  
पैदा  होने  से  पहले 
मर  गए… 

-स्वतःवज्र  

Thursday, 26 January 2012

*दादी, गुल्लक और काँच की गुड़िया *

दादी  ने  सिक्का
रोज़  बचाया
सिक्के  सिक्के
करते करते
गुल्लक पूरा
छलक गया ...

वो काँच की  गुड़िया
बड़ी निराली
गुल्लक  जितनी
महँगी थी
ऑंखें मन सब
अटक गया ...

गुड़िया  चाही
गुल्लक  टूटा
गुड़िया  पाई
गुड़िया  टूटी
गुल्लक -गुड़िया
साथ में टूटे
मिट्टी शीशा
चिटक गया ...

गुल्लक  गुड़िया
धोखा देते
आँखों आंसू
ढुलक गया ...

दादी  ने  सिर
हाथ रखा
आँचल में  आंसू
उलझ गया ,
रोते रोते
नींद आ गयी
गोदी में  फिर
दुबक गया ..

नींद खुली तो
उसी जगह पे
खाली गुल्लक
रखा  था 
 
दादी  सबसे
प्यारी तुम हो
गुल्लक  गुड़िया
धोखा  देते
कौंध ज़हन में
सबक गया ...
 
दादी  दादी
करते  करते
हाथ  पकड़ के
अमिया खाई
और  गले से
 लिपट गया ...

(To my Dadi.. Whose memories I search in my subconscious..n never get any. I will still keep on searching :) )

-स्वतःवज्र

Tuesday, 24 January 2012

मुंसिफी ...


मैं  चाहता  हूँ  अब
सारे  मेरे  दोस्त 
मुझे  छोड़ने  के  बाद
भूल  भी  जाएँ

यादों  और  बातों  के  कारवाँ
मौत  के  बाद  भी  
क्यूँ  चलते  रहते   हैं

मैं  चाहता  हूँ  अब
सपने  जो  टूट  चुके 
कब  के
अब  बिखर  के 
धूल  भी  हो  जाएँ

आँखों  से  शीशे
निकलने  के  बाद  भी 
क्यूँ  गड़ते  रहते  हैं

मैं  चाहता  हूँ  अब
मेरा  बुझा  चेहरा  
और  मेरी  थकी  आवाज़
गुम  होकर 
बदल  भी  जाये

चेहरे  की  चीखें  और
आवाज़  की  झुर्रियां
गुम  होकर  भी 
क्यूँ  चलती  रहती  हैं

मैं  चाहता  हूँ  अब
मेरे  गुनाह 
मालूम  हो  उन्हें
और  अपने  सारे  क़हर 
भूल  ही  जाएँ

वो  मेरी  सजा  से  
और  अपनी  वफ़ा  से 
फिर  क्यूँ  डरते  रहते  हैं...

-स्वतःवज्र 

आवारगी

 पहाड़ों  पे  उगे  पेड़
छोटे  पहाड़ों  जैसे हैं
मुझे  पहाड़ों  पे
चढ़ने  नहीं  देते

मैंने  चढ़ते  सूरज  से
दोस्ती  कर  ली
अब  मैं
उन  पेड़ों  से  खुश  हूँ
उनके  ताने  बाने
मुझे  थाम  लेंगे
नीचे  नहीं  गिरूँगा

पेड़  मुस्का  के  फुसफुसाए
नीचे  कैसे  जाओगे ! हीहीही...

उतरता  सूरज  जा  चुका  था ..
मैंने  रात  का  कम्बल  ओढ़  लिया
तभी  शबनम  अपने 
सलेटी  बादलों  से  निकली
मैंने  उसका  हाथ  थाम  लिया
वो  नीचे  आ  रही  थी
मेरे  पहलू में थी
लेकिन  वो  गुलाब  को
गीला  नहीं  कर  पाई  आज
क्यूंकि  मैं  ज़मीं  पे  था
भीगा  हुआ
शबनम  ने
इतराते  हुए  कहा
सूखना  है
तो  तेज़  हवाओं  का  रुख  कीजिये
मगर  वो  मनचली  हवाएं 
उस  पहाड़  पे  ही  मिलेंगी 
मैं  सोच  में  पड़  गया-

पहाड़ों  पे  उगे  पेड़
छोटे  पहाड़ों  जैसे
हैं
मुझे  पहाड़ों  पे
चढ़ने  नहीं  देंगे 

मेरी  आवारगी  ने  देखा-
पहाड़  के  ऊपर  हवाएं
लहरा  रही  हैं
और  चढ़ता  सूरज  
मुझे  बुला  रहा  है
वहां  उस  ओर  जहाँ

पहाड़ों  पे  उगे  पेड़
छोटे  पहाड़ों  जैसे
हैं
और
मुझे  पहाड़ों  पे
चढ़ने  नहीं  देते !

मैं  आवारगी  का  हाथ  थामे 
फिर  से  सूरज  पे  था ..

:)

-स्वतःवज्र

परिंदे और माँ बाप...



तिनके-तिनके  तिनके  बिन  के,
बना  घोंसला  दिन-दिन  गिन  के,

कुछ  बीने  कुछ  छीने  तिनके,
कुछ  सूखे  कुछ  गीले  तिनके,

न  दिन  है  न  रात  कहीं  है,
आँधी  लिखी  मुक़द्दर  जिनके,

फिर  से  तिनके-तिनके  बिन  के,
बना  घोंसला  दिन  दिन  गिन  के...

-स्वतःवज्र

Monday, 23 January 2012

बूँदें...विचार बिंदु से विचारधारा तक !




उतरने वालों की शक्लें देखो
उन्हें इल्म कहाँ
चढ़ने वालों से पूछो
चढ़ाई कितनी है !


मिट्टी के चूरे में पानी मिला के पिया करते हैं
बूढ़े और दरख़्त बस यूँ ही जिया करते हैं..,


उतरने वालों की शकलें देखो
उन्हे इल्म कहाँ...
चढ़ने वालों से पूछो
चढ़ाई कितनी है...

मुहल्ले   की  तंग  गलियों  की
याद  मुसलसल  आती  रही
वो  मिसरा  भी  जाता  रहा
वो  कैफ़ियत  भी  जाती  रही ।

(मुसलसल -continuously, मिसरा - line of a poem, कैफ़ियत- mood, state of mind) 

***

दुनिया  कहती  है  के  परबत  कट  नहीं  सकता,
मुझको  लगता  है  के  मुझमें  धार  काफी  है ।  

***

बारूद  के  सौदागर  तुझे  ख़ुद  पे  फख्र  है, 
 साँसे  मेरी  गरम  हैं  चलना  संभाल  के ।

 ***

हक़ीक़त  छिलके  में  प्याज़  सी  है
छिलके  छिलके  हैं  प्याज़  हक़ीक़त  है
जब  प्याज़  मिले  मुझे  इत्तेला  कर  देना
वो  मिले  न  मिले  आँसुओं  की  आयद  है
प्याज़  की  तो  आदत  है !

***

ख़्वाब हकीक़त में तब्दील
हों न हों   
मुझे परवाह नहीं
मैं तो हकीक़त को ही  
ख़्वाब कर बैठा हूँ ।

 ***

वो सिरहाने तकिया नहीं
कागज़-ओ-कलम रखके सोता है

नींद आए न आए
इक भूला ख़याल आ जाये

ख़्वाब पूरे हों न  हों
कागज़ पे कलाम आ  जाये...

***

मेरा बदन जो है  खाकी सा वो इक  राख सही,

हवा में जाऊँगा जब जानोगे इक  शोला हूँ मैं ।

 ***

ग़म को कागज़ पे लिख-लिख  के 
शौक -ओ -शिद्दत से पढ़-पढ़  के
चार बराबर टुकड़े कर के
हवा में फेंके इक-इक  करके 

***

वो बुलाते रहे घायल को
मरहम लगाने को
मैं गया नहीं लेकिन
के  वो ज़ख्म भर न जाये
ज़ख्म  ही सही
नियामत तो है
याद तो  ताज़ा रखती है...

वो  बुलाते  रहे  प्यासे को  
पानी पिलाने को
मैं  गया  नहीं  लेकिन
के  वो  आग बुझ न  जाये
आग  ही  सही
हरारत तो  है
जिंदा तो  रखती  है...

***

हर पत्थर को   
ठोकर न मार दोस्त 

सख्त-दिल भी तो हो सकता है  
किसी का...

***

दुनिया की सारी जंगें  
सब खुद के अंदर लड़ते हैं ।
बाहर तो बस   
खून पसीने के किस्से
लिखते-पढ़ते-गढ़ते हैं ।

***

हमसे  हाल  पूछा  किये  सारी  उम्र  वो  
काश  दिल  पे  हाथ  कभी  रख  दिया  होता ।

***

एक दो हो तो कह भी दूँ मन की बातें 
हज़ार मसले हैं तुम सुन भी नहीं पाओगे ।

एक दो हो तो कह भी दूँ गिले और शिकवे 
हज़ार शिकवे हैं तुम मुड़के नहीं आओगे ।

***


ग़ालिब की 
हजारों ख़्वाहिशें ऐसी  
के हर ख़्वाहिश पे दम निकले 

हमारी एक भी ऐसी नहीं के  
घर से हम निकलें 

***

हर दफ़ा ये सोच के हैराँ हुए हम दर-ब-दर 
तेरे साथ मुड़ते जाएँ या तुझे मोड़ दें ज़िन्दगी ।

***
दरिया-ओ-दुनिया
अलहदा
डूबते को चैन नहीं
तैरते को सुकूँ कहाँ...




 

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