Sunday 24 June 2012

Thanks for 5 Digits... :)


Thursday 21 June 2012

चार बजे तक: सात सितारे चंदा के...



चार बजे तक सोयें शायद !
नींद नहीं है 

इन आँखों की जेब है खाली 
उधार दो न 
थोड़ी निंदिया
आँख तुम्हारी सूजी है चंदा !

कैसे पहुँचूँ...
पलक तुम्हारी छोटी है 

तुम आ जाओ
यादों की इक रेल चली है 
अपनी नगरी
सपनों का इक टिकट कटाओ
आ जाओ !

चार बजे तक 
आ जाओ 
चन्दा !

सुनकर थोड़ी नींद से जागी
हवाओं में जुल्फें लहरा दीं
सबा सी घूमी
मुझको देखा
और चंदा मुस्कुरा दी !

सत्यमेव जयते !




( बात तब की है जब मेरी मुलाक़ात "सत्य" से हो गयी | उसके अस्तित्व और "असत्य" से उसके सम्बन्ध में पूछने पर उसका उत्तर कुछ ऐसा था...)

निस्पृह-अशरीरी-शान्त
सर्वथा-क्लान्त
अनजान-अतिथि
नव-नवीन इस प्रान्त 
बताओ कौन हो ?
'मृत्यु'' हो या 'मौन' हो ?

प्रत्युत्तर में बोला फिर वह-

मृत्यु नहीं हूँ जीवित हूँ
मौन नहीं हूँ गुंजित हूँ

विप्लव था पर विकृत हूँ अब 
प्राकृत था पर निर्मित हूँ अब 
वन्दित था पर वंचित हूँ अब
क्षितिज पार से अस्ताचल से
उदित मुदित ध्रुवतारा था पर-
धुर-यथार्थ की धुरी तले 
धू-धू जलता पीड़ित सा हूँ अब |

"सत्य" हूँ मैं
हाँ सर्वकाल में सर्व-विजेता 
"सत्य" हूँ मैं...

मैंने बोला-
सत्य हो यदि तो हाय दुर्दशा !
जय असत्य कि यहाँ सर्वदा 
कलियुग का है किं-कुचक्र यह 
लक्ष्य किधर और चले किस दिशा !!

प्रत्युत्तर में बोला फिर वह-
पर्वत पर था, खग-मृग तक हूँ
गोला हूँ मैं प्रखर-सूर्य सा 
तुम फोड़ नहीं सकते मुझको 
दो मोड़ मुझे कितना भी तुम
पर तोड़ नहीं सकते मुझको

असत्य का स्व-अस्तित्व कहाँ 
वह मुझ पर निर्भर करता है 
सत्य से पहले "अ" लगने पर 
हर  "अ"सत्य दम भरता है 

 उसको पोषित करता हूँ मैं
 उसको जीवित रखता हूँ मैं
दिवस परे मैं कृष्ण-रात्रि में 
असत्य को स्वच्छन्द छोड़ता 
"शक्ति-सन्तुलन" करता हूँ मैं

श्वेत है यदि तो कृष्ण भी होगा 
है तरंग तो कण भी होगा 
सूक्ष्म है यदि तो स्थूल भी होगा
है जो मित्र तो शत्रु भी होगा 

योग एक में नहीं है संभव 
योग में दो "चर" अपरिहार्य हैं 
बस यह ही 'चिर-द्वैतवाद' है 
बस इतना सा 'योग-शास्त्र' है 

सत-असत्य हैं द्वैत प्रकृति के
जब तक रहते लड़ते रहते 
धर्म-युद्ध में बहते रहते 
किन्तु सत्य ही मूल-धातु है 
सत्य आदि है 
सत्य अन्त है 
शिव-सुन्दर-संकल्प विजयते
यत्र-तत्र-सर्वत्र-कालवत 
सत्यमेव जयते !
सत्यमेव जयते !!

Wednesday 20 June 2012

इक तारा टूटा कहीं...



बिन बरखा
बिन पानी
बेकल
मैं ज़मीन पर लेटा था
आँख उठाकर,
उफ़क़ में देखा 
सुंदर तारा दिखता था...

एक अकेला तारा वो
छोटे नाखूनों से अपने
कलंक रात का खुरच रहा था 
हौले से...

एक कटोरा मटमैला सा 
बगल दबाये
जमा रहा था रात की कालिख
जाने क्यूँ वो...

हवा चली हलकी सी फिर
और आँख लग गयी...

पता नहीं मैं सोया कितना
पता नहीं वो घूमा कितना 
इक बूँद गिरी आँखों पर 
और मैं चौंक के जागा 

अफ़सोस !
नन्हा तारा फौत हुआ था
रात में फिर से...
लाश थी गायब !!

पर तारे ने 
मरते-मरते 
रात की कालिख साफ़ तो की थी |
तारों का क्या है
रोज़ तो टूटा करते हैं ये
छोटे तारे...

दिन को देखो 
दिन उजला था चमकीला सा-
तारे जैसा !

कालिख वाला डिब्बा, मटमैला 
इक बादल बनके करिया सा 
पास के खेत में बरसा था 
धान लगाने आये थे सब...

इक तारा टूटा कहीं...
तो कहीं इक सपना सच हुआ !

( फौत होना- मर जाना )

Tuesday 19 June 2012

लक्ष्य और मनुष्य (लघु कथा)

जब उसे होश आया तो उसने खुद को एक निर्जन द्वीप पर पाया | उसके पास केवल एक सोने की मुहर थी | यह मणियों का द्वीप न था | कोई दूर तक दिखाई न देता था केवल रहस्यमय ढंग की बड़ी-बड़ी चट्टानें थीं | जिनमें कटोरी के आकार के असंख्य छेद थे और द्वीप के चारों तरफ अथाह समुद्र | तभी उसकी नज़र एक चील पर पड़ी जो एक बहुत ऊंचे टीले पर बैठा था और उसे न जाने कब से घूर रहा था |

  अब जाकर उसे एहसास हो रहा था कि वह साधारण नाविक था और व्यर्थ ही खुद को विलक्षण मानता आ रहा था अब तक | अपने परिवार के पालन के लिए वह दूर देशों की यात्रा करता था | यात्रा के दौरान जिन देशों से गुजरता वहां का सामान कम दामों में खरीदकर दूसरे देश में मुनाफा कमाता था; चूंकि कार्य कठिन था और उसका कोई साथी न था अतः उसकी आमदनी आवश्यकता से कम थी |

 एक बार उसे मणियों के द्वीप के विषय में पता चला | उसने रहस्यमय द्वीप की यात्रा करने का विचार बनाया | उसने अपने कुछ नाविक साथियों से साथ चलने का आग्रह किया | सब इसे दुस्साहस या मूर्खता की संज्ञा देते रहे क्योंकि मणियों के द्वीप के विषय में कई कहानियाँ प्रचलित थीं | कई लोगों ने द्वीप पर एक रहस्यमय चील को देखा था और जान बचाकर भाग आये थे | कुछ अफवाहें बुरी आत्माओं तथा द्वीप की दैत्याकार चट्टानों को लेकर प्रचलित थीं | पर नाविक ने मन ही मन कहा-

 "लक्ष्य मनुष्य को स्वयं पुकारता है तब मनुष्य का कर्तव्य है चलते जाना और केवल चलते जाना, उसकी आवाज़ कि दिशा में | सफलता या असफलता एक मिथक के दो नाम हैं | "

 नाविक का संकल्प दृढ एवं अडिग था | निकल पडा वह अकेले ही अपनी नाव से |दिन बीतने लगे |वह चला जा रहा था एक निश्चित दिशा कि ओर तभी एक बहुत बड़े समुद्री  तूफ़ान ने उसका रास्ता रोक लिया | तूफ़ान अत्यंत दारुण था | उसके सारे प्रयास विफल रहे | नाव नष्ट हो गयी और सारा धन भी खो गया |

 वह भटक चुका था | सब कुछ ख़त्म हो चुका था | उसे समझ में नहीं आ रहा था कि पहले यहाँ से निकलने कि युक्ति सोचे या खुद को कोसे ! उसे इस प्रश्न का उत्तर चाहिए था कि इस प्रकार का निर्णय लेना, मन की आवाज़ सुनना एक साहसपूर्ण कदम था याकि लालच | वह आखिर क्या है- एक साहसी नाविक या लालची नाविक | पर उत्तर कहीं से नहीं आया |
तब उसके अन्दर से आवाज़ आयी-

 "लक्ष्य मनुष्य को स्वयं पुकारता है तब मनुष्य का कर्तव्य है चलते जाना और केवल चलते जाना, उसकी आवाज़ कि दिशा में | सफलता या असफलता एक मिथक के दो नाम हैं | "

उसकी तंद्रा उसकी प्यास ने तोड़ी | थोड़ा सा पानी मुँह में डालते ही थूक दिया | पानी में बहुत ज़्यादा नमक था |
उसने टीले पे जाने का निर्णय लिया | काफी श्रम के बाद वह टीले पर चढ़ने में सफल रहा | चील उसे देख कर उड़ा नहीं बल्कि चील ने कहा- क्या चाहिए ? मणियों का द्वीप ?

 कहकर चील मुस्कुराया | नाविक न जाने क्यूँ, पर लज्जित था | उसने चील से पूछा पानी कहाँ मिलेगा ?
चील ने कहा- किसी भी चट्टान की जड़ में बनी कोटरों में पीने लायक पानी है | सचमुच ये चट्टानें अद्भुत हैं ! तुम इनकी कीमत समझ सकते हो | ध्यान से नीचे देखो | यह सुनकर नाविक टीले से नीचे देखता है | ओह ! अद्भुत, विस्मयकारी, चमकीला और शानदार !! पूरा द्वीप सूर्य के प्रकाश में चमक रहा था | असंख्य मणि दूर-दूर तक पूरे द्वीप पर फैले थे | तो यह सचमुच मणियों का द्वीप ही था !

नाविक ने पलटकर चील की ओर देखा मगर चील काफ़ी दूर उड़ चुका था | चील ने वहीं से कहा- तुम एक निर्भीक और परिश्रमी नाविक हो | दो दिन बाद व्यापारियों का एक समूह यहाँ से गुजरेगा | अपनी मदद स्वयं करो... |
यह कहकर चील दूर क्षितिज में गायब हो गया |

 नाविक सोचता रह गया कि चील को उसके बारे में इतना सब कैसे मालूम ! परन्तु फिर एक बार प्यास ने उसकी तन्द्रा तोड़ी |
वह टीले से उतर आया | एक चट्टान कि जड़ की कोटर से पानी निकालकर चखा | आश्चर्य ! इतना मीठा और शुद्ध पानी !

 फिर उसने चट्टान कि ऊपरी कोटरों में झाँका तो देखा कि नमकीन पानी भरा है तथा कुछ सूखे कोटरों में हीरे के जैसे क्रिस्टल चमक रहे हैं | उसने एक क्रिस्टल को चखा | यह नमक था | वह खुशी के मारे नाच उठा क्योंकि उन दिनों खारे पानी से नमक निकालना जटिल काम था और नमक बहुत मंहगा था | उसका भाग्य चमक चुका था; अब वह अमीर था, बहुत अमीर !

 उसे चट्टानों का रहस्य समझ आ गया | ये एक फ़िल्टर की तरह कार्य करती थीं; खारे पानी से नमक को अलग कर देतीं थीं | ये क्रिस्टल ही मणियों जैसे चमकते थे | चील इस द्वीप का रखवाला था | उसे एक साहसी उत्तराधिकारी की आवश्यकता थी जो उसे इस ज़िम्मेदारी से मुक्त कर सके |
दो दिन बाद व्यापारियों का एक बेड़ा उधर से निकला और कुछ नमक के क्रिस्टल और एक मुहर के बदले व्यापारी उसे अपने साथ ले चलने को तैयार हो गए |

एक महीना बीत चुका था | नाविक का आलीशान घर | नाविक अब एक अमीर सेठ बन चुका था | चारों ओर जश्न का माहौल था | सारे रिश्तेदार इकट्ठा थे | परिवार के लोग सजे-धजे घूम रहे थे | दावत चल रही थी | खाने की मेज सजी थी |
तभी एक नौकर ने आकर नाविक के कान में कुछ कहा | नाविक ने भोजन समाप्त किया और एक नए सफ़र पर जाने की तैयारी करने लगा |

दोस्तों ने पूछा- कहाँ जा रहे हो ?
नाविक बोला- सुदूर पूर्व में "सोने कि चिड़ियों का एक देश" है |
-तो???
-तो मैंने वहाँ जाने का निर्णय लिया है |
-क्या???
- हाँ, उसके बारे में बहुत सुना है, उत्सुकता थी बहुत दिनों से...
- लेकिन इसकी क्या ज़रुरत है ??? तुम तो अब सबसे अमीर हो पूरे नगर में !

नाविक मुस्कुराया और बोला- एक नाविक का जीवन उसकी नाव है और नाव का जीवन है पानी | उसने अपने छोटे बेटे के सिर पर हाथ फेरा और मन ही मन कहा-

"लक्ष्य मनुष्य को स्वयं पुकारता है तब मनुष्य का कर्तव्य है चलते जाना और केवल चलते जाना..... "

 -स्वरोचिष (28/02/08)

Friday 15 June 2012

वह धीर पुरुष और निर्जन



इक तीव्र प्रबल उत्कंठा थी,
शुचि-शुद्ध-सात्विक मंशा थी,
उस धीर-पुरुष के मानस को,
चिर-काल से एक प्रतीक्षा थी |

झटके से फिर तंद्रा टूटी,
माया के प्रति भ्रम-भंग हुआ,
स्वाभाविक वृत्ति प्रखर हुई,
मन विप्लव को आकृष्ट हुआ |

निर्जन में उसने वास किया,
मुख-कान्ति-मलिन सायास किया,
श्रम-सीकर से सिंचित मुख से,
निर्धनता का उपहास किया |

वह डरा नहीं घन-कृष्ण-रात्रि में,
डरा नहीं खल-उत्पातों से,
वह डरा नहीं घनघोर वृष्टि में,
डरा नहीं झंझावातों से |

धन-द्रव्य कमाना लक्ष्य न था,
प्रासाद बनाना लक्ष्य न था,
इक दिव्य प्रकाश उगाना था,
इक शाश्वत दीप जलाना था |

निर्जन में मंदिर बना दिया,
संकल्प का दीपक जला दिया,
यह दीप जले सर्वथा चिरंतन,
इस नई चाह ने जन्म लिया |

इक नवीन शिव-संकल्प किया,
श्रृंखला बनाता जाऊँगा,
दीपों की इन लड़ियों से मैं,
इक नया सूर्य रच जाऊँगा |

धीर-पुरुष जो होते हैं,
नगरों के मोह को तजते हैं,
बाधाओं का आलिंगन कर-
निर्जन में जाकर बसते हैं |

हो गाँधी, तथागत याकि राम,
"वनवास" सभी में उभयनिष्ठ,
निर्जन ही उनका कर्म-क्षेत्र'
जो पुरुष धीर, जो कर्मनिष्ठ ||

(उन सभी धीर-पुरुषों को समर्पित जो निर्जन में वास करते हैं, कष्ट उठाते हैं और सत्य का संधान करते हैं |  )

बँटवारे


इंसानी फितरत ''बांटने'' की है | ऐसा लगता था पहले कभी कि मैं इस पहले से बँटी दुनिया में पैदा हुआ हूँ | अब महसूस होता है कि मैं खुद इस बँटवारे की वजह हूँ | बाँटना मेरी फितरत है, आदत है, मुसीबत है और इन सबसे ऊपर ज़रुरत है | ऐसा नहीं है कि बँटवारे border पर या भाई भाई के बीच ही हैं... बँटवारे और गहरे तक गड़े बैठे हैं...मेरे खुद के ज़हन में...|

रेलवे में नौकरी पाने के बाद देखा... कई departments हैं, कई services हैं - IRTS, IRPS, IRAS, IRPF, IRSE, IRSME, IRSS, IRSSE...

इसमें मुझे "I"  में Indian नहीं  "I" ही दिखा हरदम- "I" means मैं खुद!
"R" यानी Railway पे कभी ध्यान ही नहीं दिया मैंने...
मेरा सारा ज़ोर तो IR के बाद के दो हर्फ़ों पर है |

जो लोग पहले मेरे दोस्त हुआ करते थे, आज वो दूसरी services में हैं तो दोस्त कहाँ से हुए अब ?

मैंने ये नया बँटवारा खुद से खोजा है और पैने खंजर सा डाल रखा है अपने दिल और दिमाग में | थोड़ा दर्द तो है पर मुझे मज़ा आता है बँटवारे करने में |

जल्द ही मैं भी बँट जाऊँगा कई टुकड़ों में और बिखर जाऊँगा | मेरी ये फितरत ही मेरी किस्मत है | मैं खुद बँटवारा हूँ और टुकड़े- टुकड़े होता हुआ देख रहा हूँ खुद को...

Swarochish Somavanshi, ir"T"s

चाक पे

ये खुश्क रेत वक़्त की
फिसलती जाती है
मुट्ठियों से
रवायत है

आँखों से टप-टप गिरती
गीली यादें
वक़्त को बाँधे शायद
इनायत है

अब ये गीला लम्हा
दिन के घूमते
चाक पे है
क़यामत है

एक मूरत ढल जाये
गर साथ दो अपना तो
एक हाथ दो अपना तो...

रिलेटिविटी


रेल में    
खिड़की पे बैठ के 
हर दफ़ा महसूस  हुआ है...

जो मेरे ज़ियादा क़रीब है 
वो तेज़ी से दूर जा रहा है...


आग से बारिश तक...


देखो तपती दुपहरी 
रास्तों में बहता लावा 
गरम लू के अंगारे 
सब टशन में हैं पूरे 
छू लो 
तो उँगली जल जाएगी .

मैं नया हूँ  
इस  मोहल्ले में इनके 
इन्हें मेरा पता नहीं 
मुलाक़ात होगी मुझसे तो  
बारिश हो जाएगी...



Sunday 3 June 2012

ज़हन की आलमारी


इन चिड़ियों को सुनो कभी
क्या दुहराती रहतीं हैं
बार-बार...
चीं...चीं...चीं...चीं...

कोई नई बात नहीं है
इनके पास भी कहने को
और मेरे पास भी...
मैं भी कुछ पुरानी बातें
दुहराया तिहराया करता हूँ |

कई परतों में मोड़ के
इन बातों की चादरें
जमा करता जाता हूँ
ज़हन की आलमारी में |

आज फिर एक पुरानी दुहरी बात
निकाली आलमारी से
और बिछाई है
सिर्फ तुम्हारे लिए
आओ तो कुछ दुहरायें- तिहरायें...
तुम्हें तो पता ही है
ये सब...

क्यूँकी
इस आलमारी की चाभी
आज भी तुमारे पास ही तो है |

Saturday 2 June 2012

गुलामों की आज़ादियाँ


पिंजरे में बंद पंछी से एक आज़ाद उड़ते हुए पंछी ने पूछा-
तुम्हें कैसा लगता है? गुलामी तो सबसे बड़ा दुःख है | तुम हमेशा इन बन्धनों में रहते हो, इससे तो बेहतर होता कि तुम मर ही जाते...मुझे देखो मैं कितना आज़ाद हूँ! 

जो चाहूँ करूँ
यहाँ उडूं 
या वहाँ फिरूँ
इस नदी का पानी पियूँ
उस डाल की छाँव में सुस्ताऊँ
और सबसे मिलूँ...

और एक तुम हो यहाँ | इस छोटे से पिंजरे में क़ैद, बेबस और लाचार ! मुझे तुम पर दया आती है |

गुलाम परिंदा बोला- क़ैद में आज़ादी है और कभी कभी आज़ादी में भी क़ैद है| कैदी के पास उम्मीद है लेकिन आज़ाद के पास नहीं...उसके पास डर है क़ैद हो जाने का |
अपने पीछे देखो... बिल्ली आ रही है भागो...और हाँ आज खाने का लंबा जुगाड़ कर लेना- गर्मियां भी तो आ रही हैं |लू चलेगी, नदिया का प्रदूषित पानी भी सूख जायेगा, वो डाल भी मुरझा जायेगी |

क्लाइमेट चेंज का युग है | डरबन में भी कुछ निकल के नहीं आया 'अर्थ सम्मिट'' में भी अनर्थ ही होगा |

मेरा अन्दर जाने का समय हो गया है | अंदर AC है | तुम पीछे देख ही लो... बिल्ली नहीं बिल्लियों का पूरा झुण्ड है |ही ही ही ... ;) :P

और रही बात पिंजरे में physically क़ैद होने की, तो तुम्हारा पिंजरा थोड़ा बड़ा सही मेरा थोड़ा छोटा सही | तुम हर जगह जा-जा के खुश हो... मेरे पास सब आ-आ के खुश होते हैं | छोटे बच्चे मुझे देख के मुस्काते हैं और मेरे साथ खेलते हैं- जो मेरे लिए सब कुछ है | काश! तुम्हे भी यह सब नसीब होता |

आज़ादी और गुलामी रिलेटिव कांसेप्ट्स हैं और यह व्यक्तिगत प्राथमिकताओं का विषय है | लोहे की तारों का बना पिंजरा आपको बंद तो कर देता है मगर बहुत सारी गुलामियों से आज़ादी भी दे देता है ; सोच के देखना कभी !

दुनिया में पूरी तरह से आज़ाद कोई भी नहीं, न ही कोई पूरी तरह से गुलाम है |सैंतालीस के बाद भी कई लोग आज़ाद नहीं हुए- भूखे नंगे और बीमार हैं | वो कबूतर तो सैंतालीस के पहले भी आज़ाद थे तो फिर आज़ादी मिली तो मिली किसे! आज़ादी-गुलामी तो इंद्रधनुष की तरह है, इसमें असंख्य रंग हैं- कुछ गुलामी के कुछ आज़ादी के; जिंदगी पूरा इंद्रधनुष साथ लेके आती है |

अगर कोई पूरी तरह से सुकून में है तभी पूरी तरह से आज़ाद होगा जो कि हो नहीं सकता | आज़ादी भी एक तरह की गुलामी ही है जिसमे सभी गुलाम अपना मालिक खुद चुनते हैं- प्रजातंत्र को ही लेलो | 

और गुलामी में एक तरह की आज़ादी है जैसे की मैं !!! मुझे किसी बात की फ़िक्र नहीं | मेरी हर फ़िक्र मेरे मालिक की है और इस तरह वो मेरी मर्ज़ी का गुलाम है और मैं उसका मालिक !

वो मुझे तब तक अलग- अलग चीज़ें देता है जब तक मैं कुछ न कुछ खा न लूँ | अब यहाँ मालिक गुलाम है क्योंकि उसे गुलाम चाहिए, गुलामी चाहिए और इसके लिए वो सब कुछ करेगा अपने गुलाम के लिए...

वैसे काफी देर कर दी तुमने एक बिल्ली तुम्हारी पूंछ का सुंदर स्पर्श प्राप्त कर रही है | भागो भी... भाषण बाद में... :) 



 

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