(1)
शशांक आज शाम फिर उसी बेंच
पर बैठा था मगर अकेले, स्नेहा कहाँ थी वहाँ! यह वही पुराना पार्क था, सामने वही बच्चे
खेल रहे थे, आसमान में वही परिंदे घर लौट रहे थे, पार्क की वही बेंच जहाँ दोनो ढाई
साल पहले मिले थे, ज़मीन पर वैसी ही घास थी, सब कुछ वैसा ही था बस स्नेहा वहाँ नहीं
थी | उसकी कमी बैठी हुई थी, बेंच पर, शशांक के पास | उसे पता था की स्नेहा की कमी का
एहसास उसकी कमी को पूरा तो नहीं कर सकता लेकिन इस बेंच को तो भर ही सकता है |
वो उठा और तेज़ कदमों से
चलकर पार्क के बाहर खड़े बाबा से बोला-
- 10 रुपय
के अन्नानास दे दीजिए !
- कोई और
भी है या आप अकेले हैं?
- कोई और
भी है मगर मैं अकेला ही हूँ…
- मेरा मतलब
दो टूथपिक दूँ जैसे पहले देता था… या एक?
- दो दे दीजिए…
शशांक वापस पार्क की तरफ
बढ़ा पर आज वो तेज़ी नहीं थी जो तब हुआ करती थी जब जब स्नेहा वहाँ उसका बेसब्री से इंतेज़ार
किया करती थी | वो दूर पार्क के बाहर से ही उसे देखता मुस्कुराता और लगभग भागता
हुआ आता | स्नेहा बेंच पर बैठकर कुछ गुनगुनाती रहती, मुस्काती रहती, कभी बाल सँवारती
तो कभी इनबॉक्स में शशांक के पुराने मेसेजेस पढ़ती रहती |स्नेहा की एक और आदत थी जो
शशांक को बहुत प्यारी लगती थी | खुद स्नेहा से भी ज़्यादा प्यारी और वो थी उसका बेंच
पर बैठकर धीरे धीरे चूड़ियाँ पहनना | स्नेहा जानती थी की शशांक को चूड़ियाँ पसंद हैं-
हर रंग की- तरह तरह की- काँच की, लाख की- लाल, पीली, नीली, नई, पुरानी, मोटी, पतली चूड़ियाँ |उसे यह भी पता था की चूड़ियों से ज़्यादा शशांक को उसे चूड़ियाँ पहनते देखना
पसंद था |
यही किस्सा कान की बालियों
का भी था इसीलिए स्नेहा अपनी चूड़ियाँ और बालियाँ पर्स में लेकर आती और इंतेज़ार करती
कि शशांक अन्नानास लेकर आ जाए तो वा शुरू करे उसे ललचाना |
शशांक की निगाहें चूड़ियों
पर पड़ती तो उसकी आँखों का रंग बदल जाता और चूड़ियाँ पिघलने लगती | वो देखता रहता बस
और स्नेहा चूड़ियाँ पहनती जाती- बीच बीच में उसे देखकर मुस्कुराती-
- क्या देख
रहे हैं जनाब?
- कुछ नहीं…
- कुछ तो?
- वो…ये…
मेरा मतलब यह है कि आप ये सब अपने घर से करके आया करिए, सरे बाज़ार बनना संवरना ठीक
नहीं…यहाँ बिजली गिराने की कोई ज़रूरत नहीं है!
- हुँह ! बिजली
क्या गिरानी ? लोग तो पहले से निसार हैं…चलिए जनाब ये आख़िरी चूड़ी पहना दीजिए…फिर बालियां
भी तो हैं!
- सच्ची!
कहकर शशांक की आँखें फैल
गयीं जैसे की उसे पता ही नहीं था की आख़िरी चूड़ी उसके नाम है; झटके से चूड़ी ली तो
अन्नानास गिर गये !
शशांक चौंक कर जागा क्यूंकी
आज फिर उसके हाथ से अन्नानास गिर गये थे…
कहते हैं अगर कोई अपशकुन
बार बार हो तो उसके मायने इंसान को पढ़ लेने चाहिए | अन्नानास तो कई बार गिरे थे मगर
आज उनके गिरने के मायने और थे क्यूंकी आज उन्हे उठाने वाला कोई न था, एक का शरीर न
था एक का मन न था !
उसके बाद थोड़ी सी शाम गहराने
लगती थी और स्नेहा हर दूसरे वाक्य के बाद एक ही बात दुहराती रहती थी-
- अब हमें
जाना है…
वो बस इतना कहती भर थी,
जाती नहीं थी | उसे कहना अच्छा लगता था “अब हमें जाना है…” और उसके बाद शशांक का उसे
रोकना- शायद ये ही सबसे ज़्यादा पसंद था उसे!
- कहाँ जाना
है? कहाँ जाना रहता है आपको हरदम? चुपचाप बैठी रहिए!
शशांक मुँह फुलाकर बैठ जाता
| कभी मुँह फेर लेता तो कभी बुदबुदाने लगता |
- मुझे पता
है कि आपके पास साढ़े सात तक का टाइम है, आपकी गुलामी तो उसके बाद शुरू होती है मोहतरमा!
- और क्या
क्या पता है वैसे सरकार को?, चुटकी लेते हुए स्नेहा चहकी |
- अरे तुम
खूब जानती हो कि तुम्हारे रट लगाने के काफ़ी देर बाद तक मैं तुम्हे जाने नहीं देता,
इसीलिए मार्जिन लेके सात बजे से ही रट लगानी शुरू कर दी है आजकल | सात बजे से ही रोना
पीटना शुरू कर दिया तो साढ़े सात तक तो मैं जाने के लिए हामी भर ही दूँगा | हुँह |
और ये कहकर शशांक स्नेहा
की आँखों मे उतर जाता जो पहले से ही मुस्कुरा रही होती थी |गहरी आँखें | बड़ी बड़ी
आँखें | बोलती आँखें | रोशन आँखें | आँखों के काले कुओं के अंदर फँसा शशांक भीगता जाता,
डूबता जाता |आँखों के कुएँ के चारों ओर स्नेहा ने काजल की एक पतली बाड़ सी लगा रखी
होती थी, जिससे शशांक हार जाता था| कितनी मिन्नतें करता था निकलने की लेकिन उन मुस्कुराती
आँखों के कुएँ से निकलना आसान काम था क्या?
तभी शशांक उसका हाथ धीरे
से पकड़ लेता और स्नेहा की आँखों का तिलिस्मी कुआँ टूट जाता | अब बारी शशांक की होती
और स्नेहा की तिलिस्म खो चुकी आँखें बंद हो जाती थी |
शशांक धीरे से उसके हाथ
की मेंहदी को देखता और कहता की उसने क्यों लगाया है ये सब हाथ में…हाथ कितने गंदे से
कर लिए ! इसपर स्नेहा झूठ मूठ का गुस्सा होती और कहती कि जिसके नाम पर लगाया वो तो
बुद्धू का बुद्धू ही रहा!
असल में शशांक मेंहदी के
पीछे की लकीरों को देखता था | एक बार तो अपने नाख़ून से खुरचकर उसने एक लकीर पर अपना
नाम लिखने की कोशिश भी की थी | मगर इस तरह लिखे नाम और मेंहदी का रंग कितने दिन टिके
हैं?
- छोड़ो मेरा
हाथ | जाने क्या टटोलते रहते हो!
कहकर स्नेहा थोड़ा शरमाती,
थोड़ा खुश होती और हाथ छुड़ा लेती |वो जानती थी की शशांक उसका हाथ फिर से पकड़ेगा,
कितना भी हाथ छुड़ाए शशांक थाम लेगा और पिछली बार से ज़्यादा शिद्दत से थाम लेगा | अच्छी बात ये थी की वही
होता था जो स्नेहा मन ही मन चाहती थी | शशांक ने सचमुच उसका हाथ थाम लिया था | काश
आज भी वही होता जो स्नेहा चाहती थी | काश!
- यह है भाग्य
रेखा, काफ़ी लम्बी लाइन है, तुम बहुत लकी हो, यह है हृदय रेखा; तुम्हारी भाग्य रेखा और हृदय रेखा को एक और
रेखा मिला रही है |
- इससे क्या
होता है?
- इससे आपको
जीवन में वो मिल जाता है जिसको आप चाहते हैं|
- तुम्हारे
नाम की रेखा कहाँ है?
- ओहो!
यही तो वह सवाल था जिसका
जवाब शशांक आज भी ढूँढ रहा था | तब से अब तक, तब भी वह चुप हो जाता था आज भी चुप था
| उसने अपना हाथ फैलाया जोकि खाली था | जिसमे स्नेहा का वो हाथ नही था, वो लकीर भी नहीं
थी जिस पर वो अपना नाम लिखा करता था | आँखें डबडबा आईं | पहले एक, फिर दूसरा आँसू | उसकी
हथेली पर दो बूँदें गिरीं | उसे लगा ये मोतीआसमान से गिरे हों शायद ! उसे पता ही नही चला
की ये वो मेघ है जो स्नेहा की आँखों वाले कुएँ के पानी से बना है | ये था स्नेहा की काली
आँखें और काले काजल से बना काला बादल | ये काला बादल उसकी आँखों से नहीं स्नेहा की
खुद की आँखों से आया था | बस बरसात यहाँ हुई थी | बादल ऐसे ही होते हैं | बरखा
भी ऐसे ही होती है | बादल किसी के होते हैं और बरखा किसी और के हिस्से होती है | प्रकृति
का यही न्याय है | यह भी होता है की दोनो को भीगना पड़े एक दूसरे के बादल से ! अलग
अलग | मगर साथ एक भी बौछार, एक भी रिमझिम नसीब न हो | केवल थपेड़े हों |
दो बूँदें गिरी थी | एक भाग्य रेखा पर, एक हृदय रेखा पर लेकिन इन दोनो को मिलने वाली रेखा यहाँ न थी | हथेली
को मोड़कर और टेढ़ा करके शशांक ने दोनो बूँदों को लुढ़काना चाहा ताकि दोनो पास आके किसी
बिंदु पर मिल जाएँ लेकिन ऐसा हो न सका | सब नदियों का संगम नहीं होता | विधाता विरुद्ध
हो तो दो बूँदों का भी संगम नहीं होता- कितना भी हाथ मोड़ो या पैर पटको |
इतना सब करते करते साढ़े
सात बज जाया करते थे और स्नेहा के जाने का वक़्त हो जाया करता था |
शशांक ने घड़ी देखी, ठीक
साढ़े सात ! और शशांक खड़ा हो गया मशीनवत !
ऐसी ही थी वो ! ऐसे ही करती
थी जान बूझ के | आधे घंटे मे शशांक की कन्डिशनिंग करके ठीक साढ़े सात पर चल देती थी
| ग़लती स्नेहा की नहीं उसके अंकल की थी | उन्होने घर लौटने की डेडलाइन दे रखी थी
| अगर वो साढ़े सात से मिनट भर लेट होती तो अंकल डेड हो जाते थे और लाइन यानी की लकीर पीटने लगते | शशांक की नज़र मे स्नेहा सिंड्रैला की तरह थी | वो हमेशा उसे चिढ़ाया करता था की साढ़े
सात बजते ही राजकुमारी सिंड्रैला की तरह उसका रथ कद्दू, कोचवान चूहा और ‘पता नही क्या क्या’, ‘पता नही क्या क्या’ बन जाता था |
स्नेहा झूठा गुस्सा दिखती
|
- जी नही
! मैं सिंड्रैला नही मैं तो रैपुन्ज़ेल हूँ,
रैपुन्ज़ेल !
और फिर वो आँखों को गोल
गोल नचाकर बच्चों सी मासूमियत से कहती,ऊँची आवाज़ में –
रैपुन्ज़ेल !sss रैपुन्ज़ेल sss !!
बाल नीचे करो !!!
थोड़ा स्टाइल से और बेहद मासूम ढंग से एक बाल सुलभ मुस्कान उसके चहरे पे फैल जाती | यह देख
कर शशांक को उस पर खूब प्यार आता और दोनो ज़ोर ज़ोर से हँसने लगते | ठहाके | काफ़ी
लंबे ठहाके | ज़ोर की हँसी |
इतना सोचते ही शशांक की
आँखों से कुछ पानी और रिसा और ठहाकों और हँसी की कल्पना हल्की सिसकियों की सच्चाई में
तब्दील हो गयी |
वो खुद को रैपुन्ज़ेल कहती
थी शशांक को उसी ने यह कहानी सुनाई थी | कहानी – जितनी उसे ठीक से याद है- कुछ इस तरह
से है- यह कहानी रैपुन्ज़ेल की नहीं है | यह कहानी है “स्नेहा की रैपुन्ज़ेल की”-
या खुद स्नेहा की है |
स्नेहा बोली- रैपुन्ज़ेल
एक सुन्दर राजकुमारी थी | वो बहुत ही ज़्यादा सुन्दर थी | ठीक मेरी तरह; और यह कहकर उसने
शशांक के हाथ से अन्नानास छीनकर मुँह में डाल लिया और शरारत से मुस्काने लगी |
शशांक – हो ही नहीं सकता
! वो राजकुमारी थी, और तुम तो पूरी गुलाम हो ! अपने अंकल की गुलाम ! साढ़े सात बजे
की साढ़े साती की गुलाम !
स्नेहा (तुनक कर)- हटो
! तुम्हे क्या पता? मेरी आँखों की तरह बड़ी आँखें थी रैपुन्ज़ेल की !
और वो कहानी सुनती जाती,
बिना रुके- बिना शशांक को देखे हुए | केवल कहती जाती, बोलती जाती और बीच बीच में अन्नानास
खाती जाती | शशांक थोड़ा सुनता- बाकी और भी कोशिश करता सुनने की, कम सुन पता क्योंकि
आँखें उसके कानों को हरा देती थी | उसे पता नहीं होता था की वो करे तो करे क्या !
सुने या देखे ! अगर देखे भी तो क्या क्या देखे ?
उसकी आँखो में देखे या आँखों
से बाहर झाँकता उसका मासूम बचपन जो अभी ज़िंदा था | उसके उड़ते हुए बाल देखे या पीछे
आसमान में घर लौटते परिंदों की लंबी कतार जो उसके बालों को छूते हुई जाती थी, इस छोर
से उस छोर तक | और वो खो जाता था कहीं दूर क्षितिज में |
(2)
धड़ाक !!!
स्नेहा
ने ज़ोर से उसके हाथ पर हाथ पटका |
- हेलो! कहाँ हैं आप? सुनी आपने कहानी रैपुन्ज़ेल
की? मुझे नहीं लगता, आप तो पता नहीं कहाँ खोए हैं!
- ओह! सॉरी…मैने वो कहानी सुनी पर पूरी नहीं
सुन पाया…वहाँ तक तो याद है मुझे…जहाँ तुम कह रही थी की रैपुन्ज़ेल की आँखें बहुत सुंदर
थी- बिल्कुल सिंड्रैला की
तरह ! शशांक ने शरारत की |
- ओहो! वो तो पहला ही वाक्य था… वहीं पर अटके
हैं जनाब!
- आपकी आँखों में अटक गये थे | बड़ी ख़तरनाक
हैं | चलो कहानी सुनाओ न! अच्छा सुना लेती हो “तुम”!
यह
एक और ख़ास बात थी, शशांक का स्नेहा को इस तरह से संबोधित करना |
अक्सर
उसके वाक्य “आप” से शुरू होते थे और “तुम” पर ख़त्म होते थे | स्नेहा को देखते ही उसके
मन में जो प्रेम जनित सम्मान पैदा होता था वह उसके मुँह से “आप” के रूप में सुनाई देता
था और वाक्य के ख़तम होते होते वो उसकी अपनी सिंड्रैला बन जाती थी- और वो "तुम" पर आ जाता था | सम्मान से अपनेपन तक का यह सफ़र निमिष भर में एक ही वाक्य में देखा
जा सकता था- “आप” से “तुम” तक!
शशांक-
चलिए फिर से शुरू करिए, रैपुन्ज़ेल की परी कथा, जल्दी!
- ओके, सुनिए सरकार, रैपुन्ज़ेल एक सुंदर राजकुमारी
थी जिसकी ख़ासियत उसकी सुंदर आँखें नहीं उसके खूब लंबे सुनहरे बाल थे | खूब लंबे- इतने
लंबे की वो अगर अपने बाल किले की खिड़की से नीचे लटका दे तो ज़मीन को छू ले उसके बाल
!
- मोटी चुटिया बनाती होगी | शशांक ने
शरारत से कहा |
- (स्नेहा बिना ध्यान दिए) और सुनो! बेचारी
को एक चुड़ैल ने किले के सबसे ऊपर, एक कंगूरे पर क़ैद कर रखा था क्यूंकी वह उसकी सुंदरता
से जलती थी |
- चुड़ैल! वह भी है! वाह ! वैसे तुम्हारे
अंकल ज़्यादा सख़्त हैं या आंटी? शशांक ने फिर से शरारत की |
स्नेहा
(आँखें तरेरते हुए)- कहानी सुननी है या नौटंकी करनी है | मेरी आंटी बहुत अच्छी हैं
| हुंह ! चुड़ैल होगी तुम्हारी आंटी!!
शशांक
ने अन्नानास का एक जूठा, आधा खाया हुआ टुकड़ा स्नेहा के मुँह में डाल दिया | ज़बरदस्ती
|
- ओहो! बच्चा सेंटी हो गया! हा! हा! हा! मैं
तो मज़ाक कर रहा था आप तो सीरियस हो गयीं! चलो सुनाओ जी चुड़ैल से आगे की कहानी |
स्नेहा
(घड़ी देखते हुए)- सवा सात हो गये हैं | पंद्रह मिनट हैं | सुनना है तो सुना वरना…
- ओके ओके …
- हाँ तो वो चुड़ैल रैपुन्ज़ेल की सुंदरता
से जलती थी और उसने उसे क़ैद कर रखा था |
(
अन्नानास ख़त्म होने वाला था, उसने एक बचा टुकड़ा झटके से उठा लिया ताकि शशांक खा न
ले )
- तभी वहाँ से एक सजीला राजकुमार निकला जिसे
देखकर रैपुन्ज़ेल अपनी सुध बुध खो बैठी |
शशांक
(टशन में कॉलर ऊपर करते हुए) ओहो! सजीला राजकुमार भी है! सही है भाई !
- हाँ जी| उसने जैसे ही रैपुन्ज़ेल को देखा
तो वा मंत्रमुग्ध हो गया | दोनो को प्यार सा हो गया! लव एट फ़र्स्ट साइट! वॉव!
स्नेहा
चहचहा कर बोली और वो अन्तिम टुकड़ा अन्नानास का बचा हुआ सा शशांक के मुँह
में डाल दिया |
- फिर क्या हुआ? (शशांक ने उत्सुकता से पूछा)
फिर
राजकुमार ने ज़ोर से कहा-
रैपुन्ज़ेल
!sss रैपुन्ज़ेल sss !!
बाल नीचे करो !!!
रैपुन्ज़ेल
ने बॉल नीचे कर दिए और राजकुमार ऊपर आ गया, उसके बालों के सहारे, खिड़की से
|
शशांक-
काफ़ी रोमैन्टिक है! लेकिन कुछ ज़्यादा ही गप्पबाज़ी नहीं है ? कहकर मुस्काया.
- गप्पबाज़ी! गप्पबाज़ी नहीं इसे रोमैन्टिक फैंटेसी कहते
हैं राजा बाबू…
- चलो आगे तो सुनाओ… क्या किया तुम्हारे राजकुमार
ने ऊपर जाके? (शरारत भारी निगाहों से घूरते हुए)
स्नेहा-
फिर!.....फिर!!.....फिर साढ़े सात बाज गये !
हा!
हा! हा!
(वो
ज़ोर से हँसी और आँखें मतकाती खड़ी हो गयी)
- चलो जी! अंकल वेट कर रहे होंगे…
- ओहो! साढ़े साती का किला! अंकल रूपी चुड़ैल
और मेरी रैपुन्ज़ेल ! (उदास स्वर में)
दोनो
चलने को हुए, एक दूसरे को देखा और साथ में बोले-
1…2…3…
रैपुन्ज़ेल !sss रैपुन्ज़ेल sss !!
बाल नीचे करो !!!
हा ! हा ! हा !
ठहाके लगने लगे…
शशांक
अकेला बैठा पार्क की अंधेरी बेंच पर ज़ोर ज़ोर से हंसता जा रहा था… हा !हा !हा ! ...दूर
से देखने वालों को यकीन था कि वह हँस रहा है क्योंकि अंधेरी बेंच पर बैठे अकेले लोगों
के रोने का अंदाज़ा नहीं लग पाता | उनके आँसू तो अँधेरो में लीन हो जाते हैं लेकिन
ठहाकों की आवाज़ें लोगों को उनकी खुशी का झूठा एहसास देती रहती हैं |
वह
रो भी रहा था हँस भी रहा था | कभी रो ज़्यादा रहा था तो कभी हँसी ती तादाद ज़्यादा
थी | जी भरकर विरोधाभास को जी लेने पर, जी भरकर हंसते हुए रो लेने पर, वह चुप हो गया
|
चुप्पी
अंत है | हर चीज़ का अंत चुप्पी ही तो है | चुप्पी यानी शून्य | शशांक आसमान के शशांक
को देखता रहा कुछ देर तक शून्य में…और बुदबुदाया - शशांक की नियति में शून्य ही
है | शून्य ही नियति है हर शशांक की…स्नेहा तो साढ़े साती का ग्रास हुई अब इस
शून्य की चुप्पी में जलते रहो शशांक | ये जो चाँदनी है न तुम्हारी, ये कोई ख़ास चीज़
नहीं…ये तुम्हारी स्नेहा का स्नेह है, जो बरसता रहता है तुम्हारी आँखों से, चाँदनी
बन के…और फिर अमावस को वो भी नही होती…बस होती है तो- चुप्पी! शून्य!!
शशांक
की आँख खुली और खुद को बेंच पर लेटा पाया, काफ़ी रात हो गयी थी | खाने का वक़्त था,
खाने का मन न भी हो तो रस्म अदायगी का वक़्त तो था ही | मन ही मन यह सोचते हुए
उठा की कल फिर से दस रुपये का अन्नानास खाएगा और स्नेहा से पूछेगा की सजीले राजकुमार
ने ऊपर जाकर रैपुन्ज़ेल के साथ क्या किया |
(3)
अगले
दिन भी शशांक बेंच पर था, रोज़ की ही तरह, अन्नानास के साथ…
आज
आने में कुछ देरी हुई थी और शाम का झुटपुटा घिर रहा था | पार्क में कुछ बेँचें खाली
थी कुछ भरी | कुछ बेँचें पास जल रहे लैंप पोस्ट से जगमग थी तो कुछ
हल्के अँधेरे मे आधी सोई, आधी जागी, अलसाई सी |
हर
बात में कोई बात होती है | कोई भी बात यूँ ही बे-बात नहीं होती | अगर बात की वह छुपी
हुई बात पकड़ में आ जाए तो बात निकलती जाती है और असली बात तक जा पहुचती है -जो अब
तक छुपी हुई थी |
यहाँ
दो बातें याद आईं शशांक को- एक मामूली सी लगने वाली और दूसरी असली वाली बात |
पहली
बात यह की जब भी दोनों पार्क के गोल दरवाज़े को घुमाते हुए अंदर आते दोनों में नोक-झोंक
शुरू हो जाती कि बैठना कहाँ है!
स्नेहा
कहती कि उजाले वाली बेंच पर बैठेंगे | वहाँ एक दूसरे को देख सकते हैं | शशांक कहता
नींद में डूबी अंधेरी बेंच पर बैठेंगे- वहाँ हमें कोई देख नही सकता और मैं तुम्हारे
हाथ को अपने हाथ में लेकर बैठ सकता हूँ, बिना हँसी का पात्र बने ही |
दूसरी
और असली बात यह थी की स्नेहा उसे जान बूझकर छेड़ना चाहती थी और शशांक किसी भी कीमत
पर अंधेरी बेंच पर बैठकर झुटपुटे में खो जाना चाहता था | अंधेरे मे शशांक और स्नेहा
घुलकर कुछ नया सा बन जाते थे जो दुनियादारी से परे था | तब न वहाँ शशांक होता था न
स्नेहा; केवल अन्नानास के टुकड़े होते थे जो उस मिश्रण का मूर्तरूप थे |
असली
बात यह भी थी की दोनों उसी अंधेरी बेंच पर बैठना चाहते थे- बस अलग अलग तरह से
|
स्नेहा
चाहती थी की शशांक उसे मनाए और शशांक चाहता था की स्नेहा रूठ जाए तो हर तरह से उसे
मनाऊं | और फिर वही होता हरदम की तरह- दोनों घुलकर दस रुपये का अन्नानास बन जाया
करते थे |
हाँ
तो राजकुमार ने ऊपर आकर रैपुन्ज़ेल के साथ क्या किया; शशांक ने स्नेहा से पूछा |
- राजकुमार ने रैपुन्ज़ेल का हाथ थाम लिया
और कहा कि वह उसे खूब प्यार देगा |यह सुनकर रैपुन्ज़ेल खुश हो गयी, उसे लगा की
वह आज़ाद हो जाएगी…
- फिर?
- फिर दोनों भाग गये… पता है कैसे? रैपुन्ज़ेल
ने अपने बाल काटकर उसकी रस्सी बनाई और दोनो किले की खिड़की के रास्ते निकल गये! इस
कहानी का अंत तोड़ा कनफ्यूज़िंग है | अलग अलग लोग इसके अलग अलग अंत बताते हैं
|
- कुछ कहते हैं की दोनों दूर देस चले गये और खुशी से रहे…
- कुछ कहते हैं दोनो को चुड़ैल ने भागते हुए देख लिया और राजकुमार को मरवा दिया जिसके बाद रैपुन्ज़ेल उस कोठरी में ता-उम्र क़ैद रही…
- कुछ कहते हैं की राजकुमार ने उतरने के बाद किले में आग लगा दी और कंगूरे से झाँकती चुड़ैल जलकर राख हो गयी…
- कुछ तो यहाँ तक कहते हैं की राजकुमार गिरकर लंगड़ा हो गया था और बाद में किसी ज़हरीले पानी के कुएँ में गिरकर दर्दनाक तरीके से मर गया था|
अरे
लगना क्या है? सिंपल है दोनो दूर देस चले गये और खूब खुशी खुशी रहे-स्नेहा ने आँखें
चमकाते हुए भोलेपन से कहा |
- और वो बाकी की कहानियाँ? उनके बारे में
तुम्हे क्या कहना है?
- ओह…वो सब अफवाहें होंगी | चुड़ैल ने खुद
ही फैलाई हों शायद | खुद की इज़्ज़त बचाने के लिए |
शशांक
मुस्काते हुए- वाह चुड़ैल ने फैलाई होंगी अफवाहें! तो तुम्हे लगता है की यह कहानी सच
है?
स्नेहा
उचक कर बोली- और क्या! यह कहानी पूरी तरह सच है…एक्चुअली यह कहानी है ही नही,
ये सच है |
उस
दिन शशांक को यह कहानी “एक रूमानी ख्याल” भर लगी थी मगर आज उसे हर सच में वही कहानी
दिखाई दे रही थी | दुनिया की हर कहानी में एक राजकुमार है, एक रैपुन्ज़ेल है और एक चुड़ैल
भी है | एक सुदूर देस है जो सपनों सरीखा मालूम होता है | चुड़ैल से राजकुमारी को बचा
पाना दो बातों पर निर्भर करता है-
एक,
रैपुन्ज़ेल के बाल उतने लंबे हैं की नहीं, की राजकुमार किले के नीचे से ऊपर चढ़ पाए
और इतने मजबूत हैं की नहीं कि उतरते वक़्त उसकी रस्सी दोनों का बोझ उठा पाए |ये
बाल दोनों के बीच के प्यार का प्रतीक हैं |
दो,
राजकुमार की हिम्मत और ताक़त, कि कहीं चुड़ैल से सामना हो जाए तो भाग खड़ा होगा या
लड़ेगा | ये हिम्मत ही शशांक खुद में खोज रहा था | यह चुड़ैल “यथार्थ की बेड़ियों”
की प्रतीक थी |
प्रतीकात्मकता
हावी थी |
असली
प्रतीक वो बेंच थी | शशांक और स्नेहा बस उस बेंच पर बैठने के लिए बने थे | साथ साथ
दूर तक चलने के लिए नहीं | दोनों अंधेरी सोती बेंच के साथी थे जो साढ़े सात बजे “यथार्थ
की बेड़ियों” में जकड़कर दुनिया की अदालत में पेश हो जाया करते थे |
(4)
शशांक
एक मध्यम वर्गीय परिवार से था- तीन लड़कियों के बाद इकलौता लड़का | उन तीन लड़कियों
की शादी की जा चुकी थी और इस तरह हुए कुल खर्च को उस लड़की के बाप से वसूला जाना था
जो कि शशांक से शादी करती | स्नेहा सिद्धान्ततः दहेज के खिलाफ थी | वास्तविकतः उसके
माँ बाप दहेज देने में असमर्थ थे | यहाँ सिद्धांत की जड़ वास्तविकता के धरातल में गहरी
थी |
शशांक
भी सिद्धान्ततः दहेज के खिलाफ था | वास्तविकतः वह अपने माँ बाप के खिलाफ नहीं
जा सकता था |शशांक लालची नहीं था लेकिन वह अपने माँ बाप को आर्थिक मूल्यों के सामने
मानवीय मूल्यों या सिद्धांत का महत्व समझा पाने में असमर्थ था |वह उनकी इज़्ज़त करता
था और इसी एक बात का वास्ता देकर खुद को अच्छा लड़का मानता था |
शशांक
के पिता जी ने लाखों का लोन लेकर तीन लड़कियों की शादी की थी | अगर वो शशांक की शादी
में दहेज लेंगे नहीं तो लोन कैसे चुकाएँगे? यही सच था बाकी सब इसके सामने झूठ और बौना
था |
“इश्क़
से दुनिया नहीं चलती, इश्क़ से कुछ नहीं चलता… यहाँ तक की इश्क़ भी ज़्यादा दिन नहीं
चलता”
यहाँ
तक सोचने के बाद शशांक का दिमाग़ इस बहस- मुबाहिसे में लग जाता की वह स्नेहा से प्यार
करता भी है या ये केवल शारीरिक आकर्षण मात्र है | काफ़ी सोच लेने के बाद इसे शारीरिक
आकर्षण मान लेने में ही भलाई लगती क्योंकि इससे पिता जी का लोन चुकता हो जाता था |
अगर
लोन को नज़र अंदाज़ कर भी दो तो “जाति” का क्या? वो दोनो अलग अलग जाति से थे |
शशांक
कहता था की उसे अपनी माँ पर गर्व है, अपने गाँव पर भी उसे अपनी कम्युनिटी पर और
इस तरह अपनी जाति पर भी गर्व है | यह गर्व अंत में इकट्ठा होकर उसे समूचे देश पर गर्व
करने का हौसला और ज़ज़्बा देता था |
गर्व
अचानक ही आसमान से नहीं गिरता | इसे धीरे धीरे इकट्ठा करना होता है | चुटकी चुटकी गर्व
खरोंच खरोंच कर इकट्ठा किया था शशांक ने- एक चुटकी माँ से, एक चुटकी गाँव से, एक चुटकी
अपनी कम्युनिटी से और एक चुटकी अपनी जाति से- इन चार चुटकियों भर गर्व
से देश की गौरवशाली और गर्वीली परंपरा की नीव रखी गयी थी |
वह “जातिवादी”
नहीं था- वरना स्नेहा से प्रेम नहीं करता | मगर उसे अपनी जाति पर “गर्व” था- इसलिए
वह उससे शादी नहीं कर सकता था | इन सब बातों के बावजूद शशांक एक अच्छा लड़का था
और स्नेहा भी ऐसा ही मानती थी क्योंकि उसने यह सब कभी उससे छुपाया नहीं था | उसके माँ
बाप भी उसे अच्छा लड़का मानते थे क्योंकि उन्हे इस अन्तर्जातीय प्रेम प्रसंग के विषय
में कुछ पता नहीं था |
शशांक
को हर तरीके से अच्छा साबित करने के बाद स्नेहा कभी कभी खुद के बारे में सोचने लगती
थी | उसे पता था की शशांक इतना “अच्छा” है की उसे “मिल” नहीं सकता बस उससे अंधेरे वाली
बेंच पर "मिल" भर सकता है |
स्नेहा
भी अच्छी लड़की थी और अच्छी बनी रहने के चक्कर में काफ़ी पढ़ लिख गयी थी | एक अच्छी
फार्म में नौकरी कर रही थी और करते रहना चाहती थी | शशांक हाउसवाइव्स को सम्मान
की नज़र से देखता था और इस सम्मान पर कोई आँच आते हुए नहीं देख सकता था | इसी सम्मान
के चलते स्नेहा को अपनी नौकरी छोड़नी थी, अगर दोनों शादी करते तो ! जब तक दोनों मे
से कोई भी शादी न करता वो नौकरी कर सकती थी और दोनों अंधेरी बेंच पर बैठकर दस रुपये
का अन्नानास खा सकते थे |
वैसे
स्नेहा खुले विचारों वाली एक तरक्की पसंद लड़की थी लेकिन शशांक को पसंद करने के बाद
से थोड़ा ठहर गयी थी | यह ठहराव कहाँ से आया था पता नहीं पर अब उसे ठहर जाना भी मंज़ूर
था अगर ठहराव में शशांक का साथ हो |
ढाई
साल पहले वो शशांक से मिली थी और उसकी हर बात से प्रभावित थी| शशांक एक आकर्षक और ईमानदार
लड़का था वह होनहार और सभ्य तो था ही बहुत संवेदनशील भी था | एक बार स्नेहा ने उससे
पूछा-
- तुम्हे अपने माता पिता या मुझमे से किसी
एक को चुनना हो तो किसे चुनोगे?
- पापा माँ को! तुम्हें छोड़ दूँगा | अगर
पच्चीस साल तक प्यार देने वालों का न हुआ और तुम्हे चुन लिया तो कुछ सालों बाद तुम्हे
भी छोड़ दूँगा न? मैं कमज़ोर हूँ, धोखेबाज़ नहीं, मैं झूठ नहीं बोलता कायर भर हूँ…
कहते
हुए शशांक की आँखें भर आई, स्नेहा ने मुस्का कर उसके आँसू पोछते हुए कहा-
- मुझे पता था तुम्हार जवाब, बस यूँ ही पूछ
लिया |
कहकर
स्नेहा की आँखें छलछला उठी |
समय
बीतने के साथ और दोनों का प्रेम प्रगाढ़ होने कारण “यथार्थ की बेड़ियों” की तीसरी
शर्त की गाँठ खुल गयी थी- यानी वह उसे नौकरी करने देने पर राज़ी था, माँ पापा को भी
मना लेता मगर बाकी दोनो शाश्वत सत्य- जाति और लोन- उनके निजी स्वार्थ या प्रेम से ऊपर
थे |
एक
बार उसने मज़किया लहजे में कहा था-
मैं
अपने बच्चों की शादी इंटरकास्ट करवा दूँगा मगर खुद कभी ऐसा नहीं करूँगा, मुझे खुद को
दुख देने का हक़ है, अपने माँ बाप को गाँव भर में जगहंसाई का पात्र बनाने का कोई हक़
नही!
यह
बोलने के बाद वह चुप हो गया था और अंदर ही अंदर चीखने लगा था | अब जाके उसे लगा था
की उसकी जाति “गर्व का विषय” और “नाम के टाइटल” से कहीं आगे बढ़कर है |ये उसके खून
में घुलकर काला सा कर रही है | दर्द हो रहा है | चीखें अंदर गूँज रही हैं पर निकल नहीं
सकती | गर्व की अनुभूति जा रही है | स्नेहा भी जा रही है |सूइयां सी चुभ रही हैं
| वह हाथों में हज़ारों सूइयां लेकर खुद के शरीर में चुभो रहा है | काला खून बह
रहा है | सुकून मिल रहा है | सारा खून बह जाने के बाद भी वह मरा नहीं था |
दोनों
के रिश्ते में कुछ ज़्यादा ख़ास नहीं था- सिवाय ईमानदारी के | शशांक को केवल इसी बात
का संतोष था की उसने स्नेहा से न तो कभी कुछ छिपाया था न झूठ कहा था | स्नेहा ने भी
ऐसा ही किया था | वह अक्सर कहती थी- मुझे लेकर परेशान मत हुआ करो |अगर तुम्हारे घर
में सब मुझे अपनाएँगे तो ही मुझसे शादी करना | मैं तुम्हारे रास्ते में कभी नहीं अवंग;
कहकर मुस्का देती |
दोनों
अक्सर सोचते थे की इस जानलेवा ईमानदारी- की दोनों साथ साथ कभी किसी किनारे नहीं लग
सकते- के बावजूद एक दूसरे से मिलते ही क्यूँ हैं?
इसका
जवाब एक ही शब्द में था- “आस”! शशांक को चीज़ों के बेहतर होने की कोई उम्मीद न थी|
वह सच कह चुका था- काफ़ी पहले | फिर उसे किस चीज़ की आस थी? शशांक को बस शाम की आस
होती थी और स्नेहा से मिलने की, बस और कुछ भी नहीं, जिसे वह अवसाद के क्षणों मे
शारीरिक आकर्षण कहकर खुश हो लेता था |
आस
का पलड़ा स्नेहा की ओर ज़्यादा झुका था उसे हमेशा लगता रहता था की शायद सब कुछ ठीक
हो जाएगा और शशांक उसे मिल जाएगा |
(5)
तीसरे
दिन या फिर चौथे दिन शायद, उसे याद नहीं थी गिनती दिनों की, वह फिर से पार्क में था
| दिनों की गिनती करना कठिन काम है, जब सारे दिन एक से हों- हर आने वाला कल बीते कल
की फोटोकोपी सा हो और न तो इनकी पहचान हो पाए न ही गिनती |
सोच
रहा था की उसके हिस्से की दुनियादारी पेंडिंग है | ऑफिस का काफ़ी काम इकट्ठा हो गया
है | सब निपटाना है | स्नेहा का तो ट्रान्सफर हो चुका | अब थोड़े न आएगी
यहाँ | यहाँ क्या रखा है ? इस पार्क में या अन्नानास में? ये तो केवल प्रतीक हैं…सिंबल्स!
आदमी
प्रतीकों में जीता है | प्रतीकों के लिए जीता है | मरता है तो एक प्रतीक बन जाता है
| अगर प्रतीक बनने लायक नहीं होता है तो यह उसकी असफलता का प्रतीक होता है |
पार्क
और अन्नानास उसके लिए स्नेहा के प्रतीक थे | स्नेहा थी | अगर कोई गुलाबी कपड़ों वाली
लड़की दिख जाती तो उसे अपनी पहली मुलाक़ात याद आ जाती | सफेद कपड़ों से स्नेहा का जन्मदिन
और छोटे बच्चों की आँखों में स्नेहा की आँखें दिखने लगती |
प्रतीकों
के बारे में सोचते सोचते उसे अन्नानास की याद आ गयी | वह उठा और बाहर की तरफ बढ़ा
|
सोच
रहा था जाने क्या सोचती होगी स्नेहा उसके बारे में | उसकी कायरता के बारे में | उस
कहानी के अंत के बारे में | रैपुन्ज़ेल अभी भी क़ैद थी | राजकुमार गिरकर लंगड़ा हो गया
था और ज़हरीले पानी के कुएँ में गिर चुका था, मरना बाकी था |
अब
उसे एहसास हुआ कि क्यों लोग इस एक कहानी के अलग अलग अंत बताते हैं| यह कहानी एक प्रतीक
है बस | प्रेम का प्रतीक | इसके कई अंत हो सकते हैं लेकिन बुरे से बुरे अंत का, शुरुआती
प्रेम कथा पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता, न ही उन दोनों के प्रेम पर पड़ता है | कहानी तब
भी वही रहती है- प्रेम का प्रतीक |
प्रतीकों
में डूबता उतराता वा सड़क के छोर पर पहुँचा | जहाँ अन्नानास वाला बाबा हुआ करता था
| आज नहीं था | उसने पान वाले से पूछा –
- बाबा कहाँ है?
- वो नहीं आया, आएगा भी नहीं…
- क्यूँ?
- चला गया…
- कहाँ चला गया?
- परलोक…
- परलोक??!!
- हाँ, आज सुबह तड़के…
- क्या हुआ था??
- पता नहीं | खाँसता था… कैंसर रहा होगा…
- उसका नाम क्या था?
- पता नहीं… बाबा कहते थे सब…
उसका
मरना भी एक प्रतीक था शायद ! प्रतीकों की बाढ़… अंदर से बाहर तक !
शशांक
ने झुक कर ज़मीन से अन्नानास के कुछ छिलके उठा लिए और उन्हे जेब में रख लिया | एक अध्याय
का अंत हुआ था शायद !
उसकी
साँसें भारी चलने लगी जैसे उसके प्रेम के प्रतीक की कल रात मौत हुई हो और अस्थि-शेष
उसकी जेब में हों | कई मौतें एक साथ हुई थी उस मौत के साथ- कई प्रतीक मरे थे |
उसने
हाथ की दो अंगुलियों को नाक के सामने रखा | साँसें चल रहीं थी- गर्म थी मगर, तेज़ बुखार
हो जैसे | यह उसके ज़िंदा होने का प्रतीक था | उसके पैर भी चल दिए पर जेब में रखे अन्नानास
के छिलके अब भी बीते कल की तरह उसका पीछा नहीं छोड़ रहे थे |
*स्वर*