कलम का ढक्कन
अलग पड़ा था
निब पूरी गीली थी
लाल स्याही पूरे कागज़ पे
फ़ैली थी
और फ़ैल रही थी
जैसे गला कटा हो
और खून ख़त्म
न हो रहा हो कलम का
आज फिर कई शब्द
पैदा होने से पहले
मर गए…
-स्वतःवज्र
मन की रेत पर नहीं, यहाँ इस चट्टान पे लिखूँगा अब, जब मैं न मिलूं, पढ़ लेना, मेरे स्वर हैं, गुनगुनाओ कभी जब, मुझको महसूस करोगे !
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