Wednesday, 15 August 2012

सिर ऊपर

पाँव सने है 
बुरी तरह से 

गंदा कीचड़
जात पात का 
बिरादरी का
गाढा दलदल

मज़हब का
वो पैना काँटा 
धँसा हुआ है
एड़ी में फिर 

शुक्र है फिर भी 
सिर ऊपर है
सोच रहा है 
निकलूँ कैसे 

इंसानों में 
इसीलिए तो 
सिर ऊपर
दे रखा उसने 

थोड़ा ऊपर सोच सके गर
दलदल से बाहर आ पाए !

बदरंग सही


भीड़ में घुला
बेनाम चेहरा
अनजान था पहले 

राह चलते 
दूब पे लिपटी
धानी-हल्की पीली नज़्म दिखी इक 

नज़्म उठा के
गौर से परखी 
चेहरे पे मल दी
ओढ़ ली पूरी

अब मैं खुद से नहीं
उस नज़्म से हूँ
ज़िंदा- धानी सा 
हल्का पीला

बदरंग सही- 
पहचान तो जाते हैं सब !
 

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