मैं तेरी चाह में
भटकता फिरा दोनों जहाँ
तू मेरी आस में तड़पती रही आठों पहर
मैं तीसरे जहाँ की आस में हूँ आज तलक
तू नवें पहर की चाह में है शाम सहर
ये ज़मी और चाँद रात भी मिले हैं कभी
एक बार फिर से वो जुम्बिश है आजमाइश है
ऐसा भी कभी दुनिया में होता है कहीं !
ऐसा भी कभी दुनिया में होता तो नहीं !
ये अलग बात है तुम अब भी मुझमें शामिल हो
मगर रज़ा है के अब रुबरु हो हासिल हो
मुझे यकीं है हम मिलेंगे इस सफ़र में कहीं
जहाँ हो तीसरा या नौवाँ पहर ही सही
ये ज़मीं चाँद रात रुक के हमसे पूछेंगे
के कुछ अजब है इस जुम्बिश में आजमाइश में
ऐसा भी कभी दुनिया में होता है कहीं !
ऐसा भी कभी दुनिया में होता तो नहीं !
मैं ये कहूँगा ये ग़ज़लें है- जुम्बिशें इनकी
बतौर नज्मों के ये ज़ोर आजमाइश है
इन्ही ने तीसरा जहाँ नया बनाया है
इन्हीं की नौवें पहर की ये फरमाइश है
मेरी कलम भी तुम्हीं हो मेरा कलाम तुम्हीं
इसी कलाम से तुम तक पहुँच की ख्वाहिश है
ऐसा भी कभी दुनिया में होता है कहीं !
ऐसा भी कभी दुनिया में होता तो नहीं !
#तुम्हारे लिए