Wednesday, 25 July 2012

ज़रूरत


न घर, की न बस्ती की, न बिस्तर की ज़रूरत 
हर दरिया को है उसके समंदर की ज़रूरत 

मरहम की इन्तेहा हुई पर घाव न सम्हला 
तेज़ाब की शीशी तो है, नश्तर की ज़रूरत 

क्या खूब बनाये हैं तूने काँच के ख़ुदा 
है दिल में हौसला बस इक पत्थर की ज़रूरत 

हर आखिरी बाज़ी को समझ ताश का क़िला 
पुरज़ोर गिराओ कि है टक्कर की ज़रूरत 

दो रोटियाँ भूखे को मिलें ना मिलें सही 
दो बोल प्यार के मगर अन्दर की ज़रूरत 

मिल जाए अगर चैन-ओ-अमन काफ़िरों से ही 
दुनिया को न मस्जिद की न मन्दिर की ज़रूरत !

Tuesday, 24 July 2012

युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं !




रात काली है भयंकर, दूर तक पसरा अँधेरा
डस लिया है कृष्ण सर्पों ने, नहीं जीवित सवेरा 
है मगर तू सूर्य इतना जान ले बस
उग प्रखर सा भोर कर, ललकार के बस
  अब समय है, पूर्ण कर जो स्वप्न तूने खुद बुने हैं 
युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं !

मृत्यु है निश्चित, अकेला तथ्य है यह 
युद्ध में सब ही मरे हैं सत्य है यह 
है मगर तू भीष्म इतना जान ले बस
मृत्यु तेरी दास है यह मान ले बस 
चुभ रहे जो तीर, चुभने दे- ये तूने खुद गिने हैं
युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं !

यह जो जीवन है तेरा 'सागर का मंथन' है अनोखा 
इसमें निकले रत्न हैं, अमृत है, विष है और धोखा
है मगर तू शिव सा इतना जान ले बस 
अमर होकर क्या करेगा, छीनकर विषपान कर बस 
कंठ तेरे है हलाहल, कंठ के "स्वर" रुनझुने हैं
युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं !

मानता हूँ तू अकेला है बहुत और थक चुका है
पीठ में खंजर गड़े हैं, स्वेद-शोणित बह चुका है 
है मगर तू वज्र की तलवार इतना जान ले बस
जंग में ही, वज्र का है ज़ंग मिटता, प्राण ले बस
शौर्य के तेरे ही किस्से वीर-पुत्रों ने सुने हैं 
युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं !

मानता हूँ तुच्छ है तू, कण है तू, परमाणु है तू
जानता हूँ मर्त्य है तू, द्रव्य है और वायु है तू 
अन्त में तू ब्रह्म है और बम भी है- यह जान ले बस
"प्रलय का विस्फोट" है और बुद्ध के "निर्वाण का रस" 
प्रकृति का यह गीत तूने ही लिखा- संगीत में तेरी धुनें हैं
युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं !

Thursday, 19 July 2012

तिल का लड्डू


आज रात फिर खड़े हैं दोनों
मैं और चंदा
अपनी अपनी छत पे
इक ऊपर इक नीचे

आँखों में फिर से अक्स है
तारों का रक्स है

चंदा सुनो न !
मेरा तिल का लड्डू
हो तुम !

पता है तुम्हें
ये काला सा निशाँ
जो तुम्हारे गाल पे है
काले तिल सा
ये "तिल" है
चंदा!

और तुमसे पोशीदा
ये चाँदनी की सुफैद ओढनी
गुड़ की मिठास सी है
टपकती है
गन्ने के खेतों में
रात भर
आहिस्ता...

ये गोल-गोल चन्दा मेरी
तिल का लड्डू है
मीठा सा
तिल का लड्डू !


चंदा सुनो न !
मेरा "तिल का लड्डू"
हो तुम !

Monday, 16 July 2012

लोरी


छोटी सी गुड़िया 
मोटी सी अँखियाँ 
अँखियों में निंदिया 
छलके रे गुड़िया
छनन छनन
हाँ जी छनन छनन 
सो गयी गुड़िया 
छनन छनन
हाँ जी छनन छनन !

राजा सा बेटा
थोड़ा शा मोटा 
गोदी में लेटा 
लेकिन ना शोता 
करता शैतानी 
छनन छनन 
हाँ जी छनन छनन
सो गयी गुड़िया 
छनन छनन
हाँ जी छनन छनन !

नन्हा सा माथा 
माथे पे बिंदिया
नन्ही सी डिबिया 
डिबिया में निंदिया 
छलके है निंदिया
छनन छनन 
हाँ जी छनन छनन 
सो गयी गुड़िया 
छनन छनन
हाँ जी छनन छनन !

पिद्दी सी उंगली
पकडे है तितली
तितली ने डांटा
उंगली पे काटा
उड़ गयी तितली 
छनन छनन 
हाँ जी छनन छनन 
सो गयी गुड़िया 
छनन छनन
हाँ जी छनन छनन !

ए गुड्डो! शो जा ना 
छनन छनन!

Sunday, 15 July 2012

सिले से नाम

चाय में चीनी ज़ियादा पीता हूँ 
नाम तुम्हारा तोड़ के 
कप में घोल दिया किसने 
होंठ चिपक गए 

सिले से होंठ हैं अब 
ये चाय तुम पी लोगी क्या...
अपने नाम वाली
मीठी चाय...
मुझसे जूठी चाय...






अलविदा की इन्तेहा



एक चाँद है मेरा 
और एक सूरज 
रोज अलविदा होती है 
हर रोज़ मिलने के लिए 

और एक तुम हो 
मुड़के कभी  
देखा भी नहीं 

अलविदा कि इन्तेहा...


नन्ही सलमा के हिस्से की कालिख

फिर रात भर  
चाँद ने कालिख पोछी 
फिर दिन निकल आया उजला...


नन्ही सलमा खेलेगी 
उजले मोहल्ले भर में 
बेख़ौफ़...


फिर दिन भर सूरज जलेगा 
कालिख बचेगी 
सूरज की हड्डियों की 
चाँद के हिस्से...


काली अमावस की  
और नन्ही सलमा के हिस्से की 
कालिख  
कौन साफ़ करे...


सलमा काली अमावास को कब खेलेगी 
बेख़ौफ़ ?

Sunday, 1 July 2012

जी करता है



हर दफ़ा लिख के मिटाने को जी करता है 
ये शहर छोड़ते जाने को जी करता है |

उतर गयी है चमक मज़हबों के शीशों की
वो शीशे तोड़ते जाने को जी करता है |
 
मैं कैसे मानूँ बिना दौड़े हार जाऊँगा मैं 
वक़्त से दौड़ लगाने को जी करता है |

पड़ोसी मुल्क जो अपने थे पर गुमराह हैं अब 
उन्हें भी जोड़ते जाने को जी करता है |

मुझे है इल्म वो परबत  अबके गिर जायेगा 
इस दफ़ा दिल से गिराने को जी करता है |

वफ़ा ने कहा था वो आयेगी ज़रूर इक दिन 
फिर उसी मोड़ पे जाने को जी करता है |

हर दफ़ा लिख के मिटाने को जी करता है 
ये शहर छोड़ते जाने को जी करता है |

 

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