(इंसानी ग़ुलामी के कई कारण हैं जिनमे मूर्तिपूजा /अंधभक्ति /धर्म , राजसत्ता /भौतिक विषय, आदमी के ख़ुद के सपने, उसके अपने, और उसकी आदतें मुख्य हैं । इनसे बार-बार धोखा खाते रहने और फिर से इनके जाल में फंसने से ऊब चुका युवा सब सीमाओं को तोड़ देने को उबल रहा है, हम सबके अंदर.... )
पहाड़ का एक संग चुनके
तराशा है जिसको खुद से मैंने
बनाया है बुत अज़ीम-ओ-शान
यही ख़ुदा है के ऐसा मान
उसी के आगे ही सजदा की है
हद-ए-ग़ुलामी नहीं तो क्या है...
हो लोकशाही के राजशाही
वही रिआया वही सिपाही
रईसों के घर बड़े चमकते
बचे निवालों को ही तड़पते
मैंने निगाहों पे पर्दा की है
हद-ए-ग़ुलामी नहीं तो क्या है...
पता है के ख़्वाब टूटते हैं
पता है के सपने रूठते हैं
उठा हूँ मैं, अब भी नींद में हूँ
सजीले सपनों की क़ैद में हूँ
फिर इक तसव्वुर सजा लिया है
हद-ए-ग़ुलामी नहीं तो क्या है...
पता है के अपने लूटते हैं
वो तल्ख़ मोड़ों पे छूटते हैं
के आँख में उनकी ही नमी है
लगा के ग़म की कहीं कमी है
फिर इक को अपना बना लिया है
हद-ए-ग़ुलामी नहीं तो क्या है...
अदावतों की, जलन की, ग़म की
मुझे है आदत किसम किसम की
वो धोखेबाज़ी वो चालबाज़ी
पलट दूँ मैं सारी हारी बाज़ी
फिर एक आदत ने खा लिया है
हद-ए-ग़ुलामी नहीं तो क्या है...
वो बुतपरस्ती वो लोकसत्ता
वो मेरे अपने, वो ख़्वाब सस्ता
वो आदतों की लड़ी पुरानी
के ख़ुद को मुझपे है जीत पानी
हदों को हद से लड़ा दिया है
हद-ए-जवानी नहीं तो क्या है...
(संग- पत्थर, अज़ीम- महान /विशाल, सजदा- साष्टांग प्रणाम, रिआया- प्रजा, तसव्वुर- सपने, अदावत- दुश्मनी, बुतपरस्ती- मूर्तिपूजा)
-स्वतःवज्र