Friday, 27 January 2012

मोड़ वाले रास्ते

चलो कुछ दूर साथ चलें...
मुझे सीधी राहों में 
चक्कर आ जाते हैं
मोड़ वाले रास्ते 
पसंद हैं मुझे

चलो कुछ दूर साथ चलें
उस मोड़ तक
जहाँ मुड़ना है तुम्हें 

वहाँ उस तीखे तल्ख़ मोड़ पे
जहाँ तुम्हे हमसफ़र बदलने हों 
जहाँ तुम्हे कुछ चेहरे बदलने हों
मुझे कुछ नक़ाब पहनने हों    

मगर उस मोड़ में 
अभी कुछ देर है
चलो कुछ दूर साथ चलें
उस मोड़ तक !

मुझे तुम्हारे जाने का 
ग़म क्यूँ हो 
आने की ख़ुशी थी
उस मोड़ पे
जब तुम मिले थे
वो भी तो इक मोड़ ही था
पर तल्ख़ न था...

बीच के सारे मोड़
मुझे याद नहीं 
मुड़ने के एहसास, 
किनारे के बाशिंदे, 
पेड़ों की छाया, 
तेज़ धूप की लपटें, 
मेरे तलवे में गड़ा नुकीला काँटा, 
मुझे याद नहीं
तुम याद रहोगे
हर मोड़ पर 
जब मैं अपना खाली हाथ देखूँगा
जिस में तुम्हारी हथेली की मेहँदी 
के निशाँ न सही 
ख़ुश्बू के कतरे ही सही
मौजूद होंगे 
हाथ न सही ख़ुश्बू की ही बात चले
चलो कुछ दूर साथ चलें

लो मेरी इन मुड़ी हुई बातों में
पता ही नहीं चला और
तुम्हारा मोड़ आ गया 

वैसे तुम्हारा ये तल्ख़ मोड़ 
काफी पहले आ गया था
काफी पहले
उस सीधी सपाट राह पर...
जब तुमने हाथ छोड़कर 
उँगली पकड़ ली थी 

वैसे सीधे रस्तों में भी 
हर कदम 
मोड़ ही तो होते हैं

ज़रूरी नहीं की मोड़ दोनों के लिए हो
एक के मुड़ने की कोशिश
दूसरे को मुड़ने का एहसास दे देती है...
वो मोड़ असल में तभी आ गया था 
जब तुमने अपनी निगाहें 
मेरी निगाहों से निकालकर 
रास्तों में उड़ेल दी थीं 

जब पहली बार तुम्हे लगा था
की काश यहाँ मोड़ होता
और तुम मुड़ सकते
मेरा हाथ छुड़ाकर
वहीं उसी जगह तो वो मोड़ था
बस आने में थोड़ी देर हुई   

वो मोड़ तभी आ गया था
जब मेरे हिचकी लेने पर
तुम्हे ताज्जुब हुआ था
क्योंकि तुमने तो याद 
किया नहीं था...

जब चाय का मेरा जूठा प्याला 
तुमने पिया नहीं था... 

जब मेरे ज़ोर से बोलने पर 
तुमने मेरे हाथ को दबाया नहीं था 
धीरे से...

जब मेरे अल्फाज़ की तलाशी ली थी 
तुम्हारे कानों ने
और यकीन को टाल दिया था...  

जब तुम्हें छुए बिना तुम्हे गुदगुदी नहीं हुई थी
और न छूने पर दर्द नहीं हुआ था...

जब मेरे फ़साने लफ़्ज़ों में तब्दील हो गए थे
और तुम्हारे लफ्ज़ हर्फ़ों में...
जब तुम्हारे अंदाज़ से ज़ियादा 
तुम्हारी आवाज़ बदल गयी थी... 

जब तुम्हे मुझ पर यकीं करने को
काफी देर तक 
आँखों में सच का सबब 
खोजना पड़ा था...

जब मुझे तुमसे झूठ कहने से पहले
सोचना पड़ा था...

और जब तुम्हे सच सुनने के लिए 
मुझसे कहना पड़ा था...

जब मेरे आँसुओं से केवल 
तुम्हारा कंधा भीगा था
मन नहीं...

जब मेरी हंसी से केवल...
छोडो न...जाने दो...

लो मेरी इन मुड़ी हुई बातों में
पता ही नहीं चला और
तुम्हारा मोड़ आ गया 

वैसे तुम्हारा ये तल्ख़ मोड़ 
काफी पहले आ गया था
काफी पहले
उस सीधी सपाट राह पर...

इस मोड़ तक साथ चलने का 
और होने का 
शुक्रिया किसे दूँ ?
तुम्हें या उस मोड़ को
जिसने हमें मिलाया था 
उस कुछ कम तल्ख़ मोड़ पे....   

साथ न सही शुकराने की ही बात चले
चलो कुछ दूर साथ चलें

 
-स्वतःवज्र 


 

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