चार मंजिलों की
इस दुनिया में
जीने के
और जाने के
दो ही रस्ते हैं-
एक लिफ्ट
और दूजा ज़ीने...
लिफ्ट में जगह
मगर कम है |
और जीने* के लिए
मुझमे अभी दम है |
मैंने जीना चुना है
मैंने ज़ीना चुना है
क्योंकि लिफ्ट में
जगह कम है |
पहली मंजिल पे
मासूम लड़कपन है
है काग़ज़ों की कश्ती
दफ्तियों की गन है |
उन छोटे फेफड़ों में
माना के हवा कम है
है बिजलियों सी फ़ुर्ती
मंजिलें कदम हैं...
न कोई मुझे हैरत
के मैंने ज़ीना चुना है
क्योंकि लिफ्ट में
जगह कम है |
दूसरी मंज़िल
जवानी है
हर रोज़ नए किस्से
हर शाम कहानी है
इस मंज़िल के
खड़े मगरूर
ज़ीनों में मगर
हाँफते हुए आप होते हैं
कुछ स्याह
तारीक़ ज़ीनों में
कहीं साँप होते हैं |
ये साँप डसते हैं
इनमे से कुछ
डसते नहीं
हँसते हैं...
ये डसने वाले साँप
और खुदा हाफ़िज़ है
सतह है रपटीली
दूजी मंज़िल पे
गोकि काबिज़ हैं |
इनके डसने से
मौत नहीं होती
बस दर्द होता है
और मीठा ज़हर
साँप को भी चढ़ता है-
मगर उसे दर्द
नहीं होता |
उसे नशा होता है
सिर्फ आपके दर्द का नशा !
दर्द यहाँ
नशे का हमदम है
क्योंकि मैंने ज़ीना चुना है
और लिफ्ट में
जगह कम है |
दूजी मंज़िल के बाद
तीसरी की आमद है
तीसरी मंज़िल में
दुनियादारी है
जवानी का मुब्हम
आख़िरी छोर
सुफैद खिचड़ी बालों
की ओर....
यहाँ हँसने वाले सांप हैं
दिलशाद लगते हैं
आबाद लगते हैं
अब जानता हूँ मैं मगर
बर्बाद करते हैं |
ये बीन से डरते नहीं
ऐतबारों की बीन में रहते हैं
ये मेरी आस्तीन में रहते हैं
इनके डसने से
मौत तो क्या
दर्द भी नहीं होता
ठीक से
केवल लहू
कम पड़ जाता है
अगर कभी
उसका क़र्ज़ चुकाना हो !
हसने वाले सांप
मेरे अपने हमदम हैं
क्योंकि मैंने ज़ीना चुना है
और लिफ्ट में
जगह कम है |
चौथी मंज़िल वफ़ा की है
मैं पहुँच तो जाऊँगा मगर
लगता कुछ देर हुई
शमा सर्द हवा को
अब और गर्म कैसे करे?
खुरचन सी राख
उस हवा के झोंके को
नर्म कैसे करे?
गर वो जा चुका ही हो
जिसके लिए मैंने
जीना* चुना था
तो फिर अफ़सोस का
दरिया होगा !
उससे मिलने का फिर
कौन सा ज़रिया होगा?
कहीं वो जा न चुका हो
किसी लिफ्ट के
राही के संग?
ये सोच के
मैं अपनी उखड़ी साँसों को
और उस बे-गैरत जीने को
कोसता जाता-
जीना तो राही
ज़ीना मत चुनना!
ज़ीने में चढ़ ही जाओ
तो
सपने मत बुनना
ये देख के हैरत हुई
वो इंतज़ार में बैठा था
ज़ीने को
अपनी ओर बुलाते हुए
शमा की लौ को
कुछ और जलाते हुए
खुरचन सी राख को
हथेलियों में लगाते हुए
मुंतज़िर बैठा था !
मैंने पूछा उस वफ़ा से
तुम खफ़ा तो नहीं?
उसने हलके हर्फों को
जोड़ते हुए
लफ़्ज़ों की छोटी लड़ी से
मुझे बाँध लिया
और कहा के वो जानता था
मेरी मजबूरी
है मस-अले मेरे सब्ज़
और दुनिया के कई ग़म हैं
के मैंने ज़ीना चुना है
और लिफ्ट में
जगह कम है |
उसने कहा
लिफ्ट हरदम ऊपर नहीं आती
गिर भी सकती है नीचे
मगर ज़ीने नहीं गिरते !
इंसान गिरते हैं जीनों पे !
लिफ्ट एक डिब्बा सा है
जब जाता है
तब आ नहीं सकता
उसमे मुसाफिर नहीं मिलते
जाने वाले आने वालों से
कभी नहीं मिलते
ज़ीने दरिया से खुले हैं
बहते रहते हैं
रातों में भी
जब कोई न हो
तब भी उड़ते रहते हैं
हलके अब्र से
हर जाने वाले को
आने वाला देख सकता है
मुस्का सकता है
थक जाए तो
सुस्ता सकता है
हर ज़ीना
खुद में
इक कुर्सी भी तो है |
हर शख्स को
अपनी चढ़ाई
खुद करनी चाहिए
जीने के लिए ज़ीने ज़रूरी हैं !!!
ये सब वफ़ा ने
मुस्का के कहा
और मेरी आधी थकन
सुरूर में चूर होकर
फिजा में घुलने लगी
पूरी शाइस्तगी से !
फख्र है हमे न कोई रंज ओ ग़म है
के मैंने ज़ीना चुना है
और लिफ्ट में
जगह कम है |
- स्वतःवज्र