उतरने वालों की शक्लें देखो
उन्हें इल्म कहाँ
चढ़ने वालों से पूछो
चढ़ाई कितनी है !
मिट्टी के चूरे में पानी मिला के पिया करते हैं
बूढ़े और दरख़्त बस यूँ ही जिया करते हैं..,
उतरने वालों की शकलें देखो
उन्हे इल्म कहाँ...
चढ़ने वालों से पूछो
चढ़ाई कितनी है...
मुहल्ले की तंग गलियों की
याद मुसलसल आती रही
वो मिसरा भी जाता रहा
वो कैफ़ियत भी जाती रही ।
याद मुसलसल आती रही
वो मिसरा भी जाता रहा
वो कैफ़ियत भी जाती रही ।
(मुसलसल -continuously, मिसरा - line of a poem, कैफ़ियत- mood, state of mind)
***
दुनिया कहती है के परबत कट नहीं सकता,
मुझको लगता है के मुझमें धार काफी है ।
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बारूद के सौदागर तुझे ख़ुद पे फख्र है,
साँसे मेरी गरम हैं चलना संभाल के ।
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हक़ीक़त छिलके में प्याज़ सी है
छिलके छिलके हैं प्याज़ हक़ीक़त है
जब प्याज़ मिले मुझे इत्तेला कर देना
वो मिले न मिले आँसुओं की आयद है
प्याज़ की तो आदत है !
छिलके छिलके हैं प्याज़ हक़ीक़त है
जब प्याज़ मिले मुझे इत्तेला कर देना
वो मिले न मिले आँसुओं की आयद है
प्याज़ की तो आदत है !
***
ख़्वाब हकीक़त में तब्दील
हों न हों
मुझे परवाह नहीं
मैं तो हकीक़त को ही
ख़्वाब कर बैठा हूँ ।
***
वो सिरहाने तकिया नहीं
कागज़-ओ-कलम रखके सोता है
नींद आए न आए
इक भूला ख़याल आ जाये
ख़्वाब पूरे हों न हों
कागज़ पे कलाम आ जाये...
कागज़-ओ-कलम रखके सोता है
नींद आए न आए
इक भूला ख़याल आ जाये
ख़्वाब पूरे हों न हों
कागज़ पे कलाम आ जाये...
***
मेरा बदन जो है खाकी सा वो इक राख सही,
हवा में जाऊँगा जब जानोगे इक शोला हूँ मैं ।
हवा में जाऊँगा जब जानोगे इक शोला हूँ मैं ।
***
ग़म को कागज़ पे लिख-लिख के
शौक -ओ -शिद्दत से पढ़-पढ़ के
चार बराबर टुकड़े कर के
हवा में फेंके इक-इक करके
***
वो बुलाते रहे घायल को
मरहम लगाने को
मैं गया नहीं लेकिन
के वो ज़ख्म भर न जाये
ज़ख्म ही सही
नियामत तो है
याद तो ताज़ा रखती है...
वो बुलाते रहे प्यासे को
मरहम लगाने को
मैं गया नहीं लेकिन
के वो ज़ख्म भर न जाये
ज़ख्म ही सही
नियामत तो है
याद तो ताज़ा रखती है...
वो बुलाते रहे प्यासे को
पानी पिलाने को
मैं गया नहीं लेकिन
के वो आग बुझ न जाये
आग ही सही
हरारत तो है
जिंदा तो रखती है...
मैं गया नहीं लेकिन
के वो आग बुझ न जाये
आग ही सही
हरारत तो है
जिंदा तो रखती है...
***
हर पत्थर को
ठोकर न मार दोस्त
सख्त-दिल भी तो हो सकता है
किसी का...
***
दुनिया की सारी जंगें
सब खुद के अंदर लड़ते हैं ।
बाहर तो बस
खून पसीने के किस्से
लिखते-पढ़ते-गढ़ते हैं ।
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हमसे हाल पूछा किये सारी उम्र वो
काश दिल पे हाथ कभी रख दिया होता ।
***
एक दो हो तो कह भी दूँ मन की बातें
हज़ार मसले हैं तुम सुन भी नहीं पाओगे ।
एक दो हो तो कह भी दूँ गिले और शिकवे
हज़ार शिकवे हैं तुम मुड़के नहीं आओगे ।
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ग़ालिब की
हजारों ख़्वाहिशें ऐसी
के हर ख़्वाहिश पे दम निकले
हमारी एक भी ऐसी नहीं के
घर से हम निकलें
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हर दफ़ा ये सोच के हैराँ हुए हम दर-ब-दर
तेरे साथ मुड़ते जाएँ या तुझे मोड़ दें ज़िन्दगी ।
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दरिया-ओ-दुनिया
अलहदा
डूबते को चैन नहीं
तैरते को सुकूँ कहाँ...