मकर सक्रान्ति का दिन था खिचड़ी मनाई जा रही थी।बच्चे रंगीन पतंगों में मगन थे मगर सूबेदार भगवान सिंह के घर की रौनक और ही थी। सूबेदार साहब पूरे छह महीने बाद घर आ रहे थे आँगन में आकर जैसे ही उन्होने अपना भारी सा सन्दूक ’’धम्म से" पटका, सब जान गये कि सूबेदार साहब आ गये हैं । उनके तीनो बच्चे आँगन की तरफ लपके। नाहर, जो सबसे बडा था जो बी0ए0 फाईनल में था, चंचल के साथ चारपाई बुन रहा था। पुरानी बुनाई जगह-जगह से टूट गई थी। चंचल बारहवीं में थी, दोनो बडे शान्त और शालीन थे, शैतान तो छोटू था जो आठवीं में था लेकिन जबान कतरनी कैंची की सी और दिमागी रफ़्तार घोड़े से भी तेज़।
जहाँ एक तरफ बच्चे सूबेदार साहब से लिपट गये वहीं सूबेदार की पत्नी रसोई से भागकर अन्दर चली गई और खिड़की की आड से देखने लगीं, देखने लगीं कि सूबेदार साहब कितने दुबले हो गये है, चेहरा निकल सा आया है, रंग भी कितना दब गया है। इन सब सवालों के बावजूद उनका मन पुलकित होता रहा । उन्हें इसकी याद भी न रही कि रसोई में कढाई में बेसन के सेंव तल-तल के जल रहे है।
बच्चो से मिलकर सूबेदार साहब देहरी के अन्दर आने लगे और हमेशा की तरह उनका सिर ’’खट’’ से चौखट से टकरा गया। वह लम्बे थे, चौखट नीची थी, टक्कर होती रहती थी सावित्री की हँसी निकल गई। सावित्री-हाँ सावित्री ही तो नाम था उनका। अपने नाम के अनुरूप ही अपने अस्तित्व का समर्पण कर दिया था सावित्री ने। अब सब उसे ’’नाहर की अम्मा’’ के नाम से पुकारते थे। सूबेदार साहब सिर मलते रहे सावित्री हँसती रही-हँसी रोकती रही-हँसती रही। असल में सावित्री को शादी के बाद का पहला दिन याद आ गया जब उनकी सास आरती उतार रही थी और गृह प्रवेश के समय सूबेदार साहब का सिर टनटना उठा था तब भी उनकी हँसी न रुकी थी और पाँच गाँव तक की औरतों ने कितनी बातें बनाई थी कि ’’नईकी बहू दाँत निपोरत है...मरद की खिल्ली उडावे है...।
उसके बाद से जब जब सूबेदार साहब का सिर का सिर टनटनाया सावित्री हँसी और इतनी हँसी कि मुहल्ला इकट्ठा हो गया- पड़ोस की मौसी, बिसेसर काका और पन्सारी की दुकान के सामने कंचे खेलते सब बच्चे-हँसते थे। सूबेदार साहब शरमा जाते थे क्योंकि सभी को शादी के बाद के पहले गृह प्रवेश की घटना पता थी और बार नई तरह से मौसी कंचे खेलने वाले बच्चों को सुनासुना कर हँसती जाती थीं और कहानी अगली पीढी तक श्रुति के रुप में फैलती जा रही थी ।
“कित्ते करिया हो गये हो नाहर के बाबू, फौज में कोयला देत हैं का खावै के ?” कहकर सावित्री देवी फिर से हँसने लगी। इस बार सूबेदार साहब भी हँसे और तीनों बच्चे भी। हँसी का सिलसिला रुका । सूबेदार साहब चुप हो गये और सावित्री देवी की आँखों में देखकर, आँखो ही आँखो में बोले-सावित्री ही निकली तुम, तुमने सब संभाल लिया, मुझे पता था कि तुम कर लोगी। सावित्री देवी ने सब सुन लिया, उनकी आँखे भर आई और सूबेदार साहब-जोकि काफी रोबदार और मजबूत दिल के आदमी थे- भावुक हो गये, चार बूँदें धरती पर गिरीं और मौन में ही सारी बात हो गयी। महीनों सालों की सारी बातें हो चुकी थीं । आज सूबेदार साहब के घर में भी त्यौहार था।
(2)
शाम को घर के सारे लोग आँगन में इकट्ठे थे, बतिया रहे थे । इतने दिन बाद पूरा परिवार साथ जो बैठा था। सूबेदार साहब, नाहर और चंचल से उनकी पढाई लिखाई के बारे में पूछ रहे थे और छोटू बन्टी के साथ कूदता फिर रहा था।
नाहर ! बेटा इस बार सीडीएस का फारम भरोगे न? कस के पढो ! लेफ्टिनेंट लेफ्टिनेंट होता है एसपी, डीएम की तरह नेताओं के पैर पकड़ता नहीं फिरता। अपनी कम्पनी में जीता है, अपनी कम्पनी में मरता है, बापू कहते थे कि नौकरी करो तो फौज की- नहीं तो मत करो बे-मौज की, पहले विश्वयुद्ध में लड़के आए थे ! शेर का जिगर था ! तीन-तीन पहलवानों को हवा कर देते थे अखाड़े में, पूरे "सिंह" थे फौजदार सिंह । हमारे नाहर सिंहभी मेंजर बनेंगे एक दिन ! एकदम मेजर प्रदीप की तरह जानते हो उनके बारे में ? हमारे मेजर साहब है, शान्त व निडर; उसूल के पक्के और काम में होशियार । वो भी तीसरी पीढ़ी के आर्मी मैन होगें।
यह कहकर सूबेदार साहब ने नाहर को गर्व से देखा। नाहर था भी गर्व करने लायक । लम्बा-चौड़ा, पढाई में होशियार और इलाके भर में सबसे बढ़िया एथलीट। नाहर की गिनती गाँव के सबसे होशियारलड़कों में होती थी, उसका कारण था पिता का उत्साहवर्धन और माँ सावित्री का लालन। सावित्री ने किया ही क्या था अपने लिये, बस बच्चो को पढ़ाती गयी, उनकी देखरेख करती गई, नाहर को भी नहीं पता चला कब पिता का सपना उसका अपना सपना बन गया, वह दिन रात फौज के सपने देखा करता था। दादा के विश्वयुद्ध के मेडल को छुआ और महसूस किया करता था।
तभी सूबेदार साहब ने चंचल से पूछा-तुम क्या बनोगी बिटिया ? मै आर्मी में डॉक्टर बनूँगी कहते ही चंचल की आँखो में चमक आ गई, पूरा घर फौज के रंग में रंगा था। अरे नाहर ! ये छोटुआ कहा है ? ये पढ़ता वढ़ता भी है या...
नाहर बोला बाबू इसका मन पढ़ाई में बिल्कुल नहीं लगता, बस निखट्टू बिट्टू की पूँछ बना फिरता है । पूरा मुहल्ला, गाँव एक किये हैं दोनों, पूरा दिन महाभारत!!!- कहते हुए नाहर का गुस्सा फूटा ।
-ये बिट्टू किसका लड़का है ? कहते हुए सूबेदार साहब ने चाय की चुस्की ली।
-बिट्टू राधे चचा का लड़का है,
-कौन राधेश्याम ? वही जो पुलिस में हवलदार है न ?
-हाँ वही ।
-उनकी तैनाती चुंगी पर है न... तो रोज कुछ न कुछ खरीद लाते है बिट्टू के लिये ...ये छोटुआ उसी लालच में चिपका रहता है। चुंगी और ट्रान्सपोर्ट थाने में अच्छी कमाई है सुनते हैं !
सुनते ही सूबेदार साहब गरज उठे- यह सब बकवास है। दो नम्बर का पैसा केवल दस वर्ष तक टिकता है ग्यारहवें वर्ष मूल ब्याज सब नष्ट हो जाता है। राधे पगला गया है कोठी ठोक कर बारात घर खोलेगा क्या ? घोर कलयुग ? छोटुआ को बुलाओ ...अभी बताते हैं।
अदालत लगी छोटू जी पेश हुए। बिट्टू बाहर से दिवार पर लदा हुआ अदालती कार्यवाही देख रहा था सूबेदार साहब ने दृढता से पूछा
-तुम्हारा मन पढ़ने में नहीं लगता न ?
छोटू चुप।
-बोलो
लगता तो है ...भइया ने शिकायत की है क्या ?
-नहीं भइया ने नहीं ...पूरे गाँव ने की है छोटे ठाकुर साहब ...आप बहुत उड़ रहे है पढ़ लीजिए वरना यहीं गोबर काढेंगे।
’’पढ़ लीजिए वरना यहीं गोबर काढेंगे...’’ यह वाक्य दरअसल सूबेदार साहब के पिता जी का था जो उन्हे इसी तरह डांटा करते थे। डांट का अच्छा असर भी हुआ था। सूबेदार साहब इण्टर दूसरी श्रेणी में पास हुए और बीए0 प्रथम वर्ष में थे जब फौज में भरती हुये। वह हिन्दी निबन्ध में बहुत अच्छे थे, साहित्य के पक्के प्रेमी, लगभग पूरा हिन्दी साहित्य पढ चुके थे और फौज में भी बिना कुछ पढ़े सोते न थे।
-बड़े हो गये है आप अब। भइया नाहर लैफ्टिनैन्ट बनेगा, दीदी फौज में डॉक्टर, आपके नेक इरादे क्या हैं महाशय?
-’’मै नेता बनूँगा" सहसा छोटुआ मुहँ से निकल गया। यह सुनते ही गम्भीर माहौल में हँसी तैर गयी। सब हँसने लगे दीवार पर लदे बिट्टू की हँसी निकल गई तो सूबेदार साहब भी हँस पड़े
क्यूँ भाई नेता क्यूँ बनोगे?हँसी रोकते हुए उन्होंने पूछा।
-ताकि आपकी पोस्टिंग चुंगी थाने पर और बिट्टू के पापा की पुंछ में करवा दूँ।
सूबेदार साहब की त्यौरियाँ चढ़ गयीं।
छोटुआ फिर बोला मासूमियता से- गुस्सा क्यो हो रहे हैं। उनके पापा कितने खिलौने, साईकिल लाते है उसी थाने के पैसे से, और एक हम हैं कितने दिन हो गए नये कपड़े पहने। ये रसोई का छप्पर बहुत पुराना हो गया है धुएं के कारण कोयला जैसा लगने लगा है। अम्मा खाँस खाँस के दम नहीं लेती।
और तो और बिट्टू और उसके भइया को कोई हाथ लगाके तो दिखाए !
सूबेदार साहब क्रोधित होते होते सभले। एक मिनट ... तुझे किसने हाथ लगाया ?
छोटू गुस्से से बोला अमीर सिहं ने ...आप तो रहते नहीं यहाँ ...वो अमीर सिहं बहुत बदतमीजी करता है ...एक दिन दीदी को कुछ कह रहा था तो भइया ने उसे बहुत धुना ...बाद में काफी हाथापाई हुयी ...भइया को काफी चोट आई ...केवल बिट्टू के पापा काम आए। अपनी बुलेट लाके खड़ा कर दिए बाहर और बोले ये पुलिस का घर है फौजी का समझ कर अनाथ न मानो ...
और तो और नहर का पानी और बगीचे वाली जमीन भी दबा रहे है वो लोग
यह सब सुनकर सूबेदार साहब नाहर की तरफ देखने लगे।
ये सब क्या है ? अमीर सिहं कौन है कुंवर सिंह का पगलेट बिटवा तो नहीं है ? इतना बडा हो गया है कि हमें धौंस देता है और नहर का पानी भी काट लिया क्या ? तुम चिट्ठी में कुछ लिखते क्यो नहीं ?
नाहर बोला- हम सोचे आपको क्या परेशान करें, खुद ही सभांल लेंगे। आप वहां से कर भी क्या पाएंगे- उत्ती दूर से ? वैसे हम आपको बताने वाले थे आज रात- तलाब के पीछे और बगीचे के बीच की जमीन कब्जा लिए है कॅुवर चाचा खलिहान बनाने के बहाने और अब दीवार उठा रहे हैं, और तो और पूरा पानी उतार लेते है नहर का। यादव लेखपाल उनका आदमी है, कानूनगो कोई सक्सेना है बडा लुन्ज आदमी है। हजार डरपोक मरे तो ये सक्सेना जना ।
सूबेदार साहब गम्भीर मुद्रा में आ गये-हम्म्म! कल देखते है अमीर सिहं कुँवर सिंह को! बिच्छू का मन्तर पता नहीं और साँप के बिल में हाथ डालने चले हैं, 150 जावानो को आदेश देता हूँ रोज़, मजाक है क्या ! लेखपाल कानून से बाहर तो नहीं। मुझे जानता नहीं होगा, कल मिल के आता हूँ उससे भी।
छोटू उस्ताद ने आज फिर बात को दूसरी तरफ मोड़ कर खुद को बचा लिया था लेकिन इस बार बात असली समस्या की तरफ मुड़ी थी । सावित्री देवी चाय का प्याला लेकर जब तक आयीं सूबेदार साहब चिंतामग्न हो चुके थे और क्षितिज में निहार रहे थे। आज फिर सावित्री अपनी बात नहीं कह पाई, अपनी समस्या बताने आई थी, सोचती थी सब हँस बोल रहे है वो अपनी बात रखे, उसकी दमे की शिकायत बढ़ गई थी, आँखो से पानी गिरता था और घुटने पकड़ने, लगे थे शायद गठिया हो रहा था।
मगर आज भी सूबेदार साहब दूसरी अधिक गम्भीर समस्याओं में उलझे थे, सावित्री चुप ही रही पास आकर बैठ गई। उनका हाथ सहलाने लगी और बोली लाओ तेल लगा दें सिर में, बाल बहुत रुखे हो रहे है, फौज में मिट्टी का तेल लगाते है का सब लोग ?
सावित्री के इस सायस हास्य का सूबेदार साहब पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। बुत बने रहे और क्षितिज के सूरज का तेजी से बदलता रंग घूरते रहे।
(3)
अगली सुबह तहसील कचहरी, ठीक ठाक भीड़ इतनी भीड़ जिसमें काम का आदमी खो जाये। मगर इतनी भी नहीं जितनी गाँव के मेले में होती है, चारों तरफ गुमटियाँ सी बनी हैं जिसमें स्टाम्प बेचने वाले बेठे हैं- पान की दुकानों की तरह। एक दूूसरी ओर बड़े से नीम के पेड़ के नीचे टीनशेड से छाये हुए वकील बाबुओं के बस्ते हैं। नीम के ऊपर काले कौओं की खासी भीड़ है नीचे काले कोट वालों की उससे भी ज्यादा। इसी परिसर में कलेक्ट्रेट भी है यादव लेखपाल भी यही बैठते हैं। सूबेदार साहब नाहर के साथ लेखपाल के दफ्तर पहुँचते है और अन्दर घुसते हैं।
-आप अन्दर कैसे आ गए ...अभी जो है कि लंच टैम है आप बाहर बैठिए...जो है कि...सूबेदार साहब ने घड़ी देखी कि लंच तो आधे घण्टे पहले ही खत्म हो चुका है आप लंच कर भी तो नहीं रहे हो आप मेरी बात ही सुन लीजिए।
इस पर वहाॅ बैठे सभी सरकारी लोगों ने आगंतुक को निगाह भरकर देखा और बेपरवाह फिर से अपने काम में लग गये सूबेदार साहब ने भी उन्हे देेखा चाय, समोसे खाये जा चुके थे चौराहे पर चाय की दुकान चलाने वाला बारह साल का लड़का जूठा उठा रहा था। एक चेला गंगाराम, यादव लेखपाल के लिये खैनी बना रहा था बाकी सरकारी लोग कल के प्रदर्शन और चक्काजाम पर बहस कर रहे थे। लेखपाल जी ने उन्हे ध्यान से देखा, फिर चेले गंगाराम से बोले-
-गंगा हो! जाफरानी लाया करो। ससुर बिफ्फे को काँटा जइसा खैनी खिलाया। सूल उठता है ...जो है कि ...लेखपाल का बस्ता उठाना सबकै बस की बात नै है...जो है कि...।
-मुन्ना पान वाले की थी। मुन्ना बोला रहा लालगंज की सबसे टाप खैनी है तो हम ले लिये। मुन्ना ठगता है। लेखपाल जी बुदबुदाये। दुलहिन वही जो पिया मन भाए, सुरती वही ...जो है कि ...फुर्ती लाये। इस साले मुन्ना के का पता सुरती वुरती। ठगता है ...जो है कि ...
सूबेदार साहब आश्चर्यचकित खड़े रहे- यह सोचकर कि क्या वह अदृश्य हैं जो दफ्तर के किसी आदमी को वह दिखाई नहीं दे रहे।
लेखपाल जी ! हम खडे है यहाँ।
तो क्या करें ? खड़े रहिये, अभी लन्च टैम है, सूरती खा रहे हैं, इसके बाद कुल्ला करेंगे फिर एक चाय और पियेंगे। बाहर जाकर बैठिये बाहर पूरा शिव बारात बैठा है। सबको साला हमसे ही मिलना है ...जो है कि ...हमीं कलट्टर हैं का हो गंगा ?
जी चार गाॅव के लिए आप ही निसपिट्टर है आप ही कलट्टर ...आप ही गवर्नर हुजूर।
और दाॅत निपोर देता है गंगा चापलूसी में। इस झूठी चापलूसी पर दफ्तर के सभी लोग हँसे।
अब आप बाहर जाएँ महाराज आप। नम्बर लगे तो आईयेगा। यहाॅ सब काम नम्बर से होता है। सब कायदे से होता है ...जो है कि ...लन्च टैम में भी चिक चिक चिक चिक... लेखपाल जी बुदबुदाते हुए गंगा के हाथ से सुरती लेने लगे।
सूबेदार साहब बाहर आकर बैठ गये। लगभग दो घण्टे तक लेखपाल जी यहाँ वहाँ करते रहे। कभी इस वकील के पास बैठते तो कभी उस वकील के पास। कभी नोटरी को कुछ समझाते हुुये चाय पीते रहते तो कभी फोन पर लगे रहते। चार बजे तक केवल तीन चार लोग ही मिल पाए उनसे। अगर ऐसा ही चला तो नंबर कैसे लगेगा आज?
तभी गंगा दांत निपोरता हुआ आया और सूबेदार साहब के बगल बैठकर एक पैर ऊपर उठाकर चबूतरे पर रख लिया।
-आपको को मिलवाये देते है लेखपाल जी से। हम उन्हीं के आदमी है- गंगा! पूरा कचहरी जानता है
लीखपाल जी बस्ता उठाना हँसी ठठ्ठा नहीं!
गंगा नहीं तो जरीब-लठ्ठा नहीं!!
पचास ठो रुपया दीजियेगा।सुरती लायेंगे। आप भी लीजियेगा क्या ?
- पचास रुपये किस लिये ?
-फीस लगता है। कोरट फीस, दरबारी कुच्छो कह लीजिये बाबू जी। बिना फीस के कैसे मिलियेगा ? सरकारी काम है- सरकारी टैम कीमती होता है।
-नहीं देता। पचास रुपये क्या एक रुपया भी नहीं देता। जा कह दे अपने लेखपाल साहब से कि मैं इस घूसखोरी की शिकायत करने तहसीलदार साहब के पास जा रहा हूँ। फ़ौज में सूबेदार हूँ। जा बता दे।
यह सुनकर गंगाराम का मुँह उतर गया और दाँत अन्दर हो गये। वह चुपचाप भयभीत सा- लेखपाल के कान में कुछ कहता है। लेखपाल जी कुछ समझाते हैं। गंगा लौट के सूबेदार साहब से कहता है
- मेजर साहब आपको लेखपाल साहब ने बुलाया है। आपका नम्बर आय गवा।
सूबेदार साहब को एक बार फिर अपनी कम्पनी पर, मेजर नवलगुण्ड पर, अपने पिता पर और समूची फौज पर गर्व होता है। आत्मविश्वास वापस आता प्रतीत होता है। वह नाहर को गर्व से देखते हैं। मानो कह रहे हों- देखा!
तो आपकी जमीन पर कब्जा हो रहा है। बाँस गाँव में। आपका चचेरा भाई कुँवर सिहं ? ह्म्म्म । देखिये आप दरख्वास्त दे दीजिए ...जो है कि। तहसील दिवस को आइयेगा। तहसीलदार साहब, कानूनगो साहब सब लोग होगा। जमीन कौन सी भागी जा रही है जो है कि...
-मगर मेंरी छुट्टी तो केवल तीन दिन बची है। तहसील दिवस को तो अभी पूरा हफ्ता है। आप कल मौका देख लीजिये कागज लठ्ठा तो सब आप ही के पास है। नाप के इन्साफ कर दीजिये। जमीन मेरी है तो कब्ज़ा कुंवर सिंह कैसे ले सकता है। फौज में ऐसा नहीं हो सकता ...फौज में तो...
-ये फौज नहीं है सूबेदार साहब! इस बार लेखपाल की आवाज व्यंग्य था।
-जिसका कब्जा, उसका उपजा। जब आप कब्जा रख नहीं सकते तो जमीन की दावेदारी किस बिना पर करते हैं। फर्ज कीजिये आप की सब बात ठीक है, सब दुरुस्त है। जमीन आपकी ही है और हम पैमाइश करके रकबा निकाल भी दें फिर भी काबिज तो आपको ही होना पड़ेगा। कब्जा तो ले लेंगे पर काबिज रह पाईयेगा ? बोलिये?
मैं तो बाहर रहता हॅू। तीन महीने से ऊपर छुट्टी कहाँ मिलती है। परिवार रहता है बांसगांव में। यह बेटा है। पढता है। इस मैं दीवानी फौजदारी में लगाना नहीं चाहता।
-तब! तभी तो हम कह रहे हैं सूबेदार साहब यह फौज नहीं है। जैसा भी हो कुंवर सिंह महाशय आपका भाई है-खून है। मिल बैठके बातकर लीजिये। कोरट कचहरी में क्या रखा है? ...जो है कि...
-आप जानते हैं क्या कुंवर सिंह को व्यक्तिगत रुप से ? सूबेदार साहब ने सशंकित स्वर में पूछा।
-न...न ...नहीं। मैं ...मैं क्यों जानूंगा जो है कि। मैंने बस नाम सुना है वो भी आपसे! आप अपना काम कर दीजिये। एक बार पैमाईश करके हमारा रकबा निकाल दीजिये। लेखपाल साहब कानून का राज है अगर फिर कब्जा किया उसने तो, पुलिस प्रशासन भी कोई चीज है हार थोड़ी न मानूँगा।
-तो फिर तहसील दिवस पर आ जाइये ..जो है कि ...कायदे से ...अच्छा ...नमस्ते सूबेदार साहब।
कहकर लेखपाल जी बोले- गंगवा वो गंगवा ! एक चाय ले आ एक कड़क और बारात में से अगले आदमी को भेज अंदर।
बात वहीं की वहीं है। कायदे से होगा सब! यह फौज नहीं है यहाँ कायदे कानून से होता है सब कुछ। एलओसी पर कौन सा कायदा कोई भी किसी को मारता फिरे, जमीन कब्जाता फिरे। कब्जा तो लिया पाकिस्तान, चीन ने भी। कहाँ है कायदा वहाँ कहाँ है कानून? यहाँ सब कायदे से होता है। गैरकानूनी कब्जा भी करो तो कायदे से करो। कायदा! कायदा!! कायदा!!!
जहां कायदा है वहीं सब का फायदा है। कायदे में ही फायदा है। जो लोग कायदे की बात करते है वह आपके फायदे की बात करते है। बस...
इस बार सूबेदार साहब नाहर को "उस गर्व" से नहीं देख पाये। वह उठे और बाहर निकल गए। नाहर से बोले चलो कल कुंवर सिंह से मिलते हैं। तहसील दिवस में अभी कई दिन हैं। तेज़ कदमों से कचहरी से बाहर निकलते सूबेदार साहब को देखकर समझ नहीं आ रहा था कि वे गुस्से में ज्यादा हैं या निराश।
(4)
अगली सुबह सूबेदार साहब अपनी ज़मीन पर गए और देखा कि किस तरह कुँवर सिंह ने ज़मीन पर खलिहान बनाकर कब्जा कर लिया था| एक तरफ आधी दीवार उठ चुकी थी जो स्थाई कब्जा करने की मंशा से बनाई जा रही थी| बरगद का पुराना पेड़ भी काटा जा चुका था जो सूबेदार साहब के दादा ने लगाया था और गाँव भर की औरतें सालों से उसे "वट सावित्री" के रुप में पूजती आ रहीं थीं| सूबेदार साहब को बहुत गुस्सा आया और उससे भी ज़्यादा दुख हुआ| यही सिला मिला है मुझे इन साँपों पर भरोसा करके? यही ईनाम है ज़िन्दगी भर की तपस्या का?
कुँवर सिंह का घर ! अहाते में कुँवर सिंह के साथ बैठकी करते चार पाँच लोग दिखे| दूर से ही सूबेदार साहब ने लेखपाल यादव और गंगा को पहचान लिया| उन्हें देखते ही यादव नजरे चुराने लगा सूबेदार साहब का पारा और चढ़ गया|
-राम-राम बड़के भइया! कुँवर सिंह कुटिल मुस्कान के साथ बोला और बैठने को कुर्सी बढ़ा दी।
-भइया भी कहते हो और घर दुआर पे कब्जा भी करते हो… आस्तीन के साँप को दूध पिलाये हम… रामआसरे चच्चा के मरने पर सात साल के थे तुम… तुमको मार के खा जाता तुम्हारा मामा! कौन बचाया था तब? सुल्ता़नपुर से कौन लाया था यहाँ ? ट्रैक्टर का पैसा भी हम ही दिये ! बगिया के आम-जामुन सबमें आधा-आधा दिए…वो भी तीन चैथाई मार जाते हो क्योंकि हम तो रहते नहीं यहाँ!!!
- तो काहे नहीं रहते? वहाँ कौन सा तीर मार रहे हो ? सुने हैं…सुने हैं…सब सुने हम…सूबेदर भगवान सिंह के पेशाब से तो पूरी फौज में चिराग जलते हैं…
- तुम्हारी इतनी औकात कुँवर जबान लड़ाते हो! इन सरकारी कुत्तों को खरीदकर फन्ने खाँ बन रहे हो ! अपनी हद मत भूलो!
- नहीं तो का ? का उखाड़ लोगे ? हमारे पास कागज भी है और कब्जा भी ! हमारा एक बाल भी नहीं उखाड़ सकते|
लेखपाल- कानूनगो के बिक जाने से पूरा प्रशासन नहीं बिक जाता| मैं एसडीएम, कलेक्टर सब के पास जाऊँगा, देख लूँगा …
- अभी देख लो… हा हा हा सुनो दद्दा ! एसडीएम, कलेक्टर को तो आजादी के बाद से आज तक इस गाँव की मिट्टी ने देखा भी नहीं और तुम्हारी उम्र साल में नब्बे दिन है… नब्बे दिन की छुट्टी हा हा हा … छुट्टी खत्म; तो खेल खत्म! जाओ वहीँ बॉर्डर पर अपनी तीरन्दाजी दिखाओ! मूड़ मत खाओ हमारा। हम कहते हैं नमस्ते।
- कुँवरसिंह याद रखो ये मेरे शब्द- सूबेदार भगवान सिंह का वादा है कि तुम्हे धूल चटा कर अपनी जमीन वापिस लूँगा …नहीं तो नाम कुत्ता रख देना।
- हा हा हा … भगवान सिंह से सीधा कुत्ता ! हा हा हा !
इतना सुनते ही नाहर से रहा न गया और
’’चटाक’’
खीचकर एक तमाचा मारा नाहर ने कुँवरसिंह को| फिर क्या था, हाथापाई शुरु| किसी तरह सब ने दोनों को अलग अलग किया| पूरे रास्ते नाहर सूबेदार साहब से डांट खाते और भाषण सुनते घर लौटा| रात में दोनो में से कोई नहीं सोया| सुबह जल्दी हो गई| पांच बजे ही सूबेदार साहब वापिस जाने को तैयार होने लगे| छुट्टी खत्म हो चुकी थी| सब बातें अधूरी रह गयीं थीं| सावित्री की तबियत का हाल पूछा न जा सका| छोटू की ड्राईगं बुक देखी न जा सकी| जमीन के लिये तहसील दिवस में एसडीएम, कलेक्टर से भी न मिल सके| सब बातें अधूरी रह गयी थीं पर छुट्टी पूरी हो गई थी| सब उदास बैठे थे| सबकी आँखो में आँसू थे| सूबेदार साहब का एक पैर देहरी से बाहर निकला ही था कि छोटू दौड़कर आया और चिपक गया।
- बाबू हमें साईकिल कपड़े कुछ नहीं चाहिए …बस आप चाहिये! एक् दिन और नहीं रुक सकते क्या? इतना कहते ही दो आँसू छोटू के गालों पर लुढ़क पड़े और माहौल भारी हो गया।
(5)
पानी लगातर टपक रहा था ! कड़ाके की सर्दी! बर्फीली हवाओं की सुइयाँ सी चुभ रही थीं! पूरा शरीर सुन्न सा हो रहा था| सांसें बोझिल हो रही थी। तीन गोलियाँ लगकर पार हो गयी थीं, मिट्टी में खून पानी की धार से मिलकर उसे काला सा बना रहा था फिर भी हाथ में सूबेदार साहब अपनी रायफल को मजूबती से थामे हुए थे| वो बाहर भी लड़ रहे थे-अन्दर भी। अन्दर से आवाज आई-’’अब मर जा!’’ लगा कि उनके मरने का वक्त आ गया है, फिर भी उन्होंने लम्बी साँस खीचकर बन्दूक को कसकर पकड़ लिया| अभी लड़ाई चलनी थी बाहर भी और अंदर भी … थोडी और देर तक।
झाडी के पीछे से हरकत बन्द हो गई थी जिसका मतलब था कि आतंकवादी घुसपैठिया या तो मर चुका था या भाग निकला था। सूबेदार साहब ने वायरलैस पर बताया कि एलओसी के इस हिस्से में घुसपैठ की कोशिश हुई है, जिसे रोकने के लिए फायर किये गए और जवाबी फायरिंग भी हुई। कम से कम तीन गोलियाँ लगी हैं, पहली पैर में, दूसरी पेट में नीचे की ओर और तीसरी सीने में दांयी तरफ|
उनके हाथ से रायफल गिर गई और लगा कि एक बडी चट्टान की आड़ में मरने की तैयारी हो रही है| मगर उनका एक हाथ उनकी बायीं जेब पर जमा हुआ था जिसमें उन्होंने नाहर के लिए एक चिठ्ठी लिख रखी थी| इसे वो हमेशा अपने पास रखते थे| खास तौर पर ड्यूटी के समय| कभी किसी ने पूछा तो कहा कि अगर मैं अपनी पोस्ट पर मर जाऊॅ तो इसे मेरी जेब से निकाल कर देख लेना इस पर उसका नाम है जिसके लिए चिठ्ठी है और इसे उस तक पहुँचा देना।
सूबेदार साहब का शरीर ठंडा पड़ने लगा और तकरीबन आधे घंटे के भीतर वे वीरगति को प्राप्त हो गए |
(6)
अपने दादा के वीरता के मैडल नाहर ने जलते चूल्हे में डाल दिए| उसका मन उद्विग्नता और क्षोभ से भरा हुआ था| उसने सोच लिया की चाहे जो हो जाये वो अब फ़ौज में नहीं जायेगा बस!
तभी डाकिये ने उसे वो चिट्ठी लाकर दी |
"बेटा नाहर,
तुम यह चिट्ठी पढ़ रहे हो मतलब कि अब तुमसे कुछ बातें कहने का समय आ गया है| मैं अपनी मौत के बारे में कुछ नहीं कहूँगा | बस अपनी मनोदशा और उस तर्क के बारे में बात करूँगा जिसके कारण मैंने ये नौकरी करने और जारी रखने का फैसला किया |
बलिदान एक उदात्त संकल्पना है । उसमे दान यानि देने की प्रवृत्ति झलकती है | समर्पण की भावना है | इष्ट के प्रति साधना विश्वास और श्रद्धा आदि प्रकट होते हैं | यहाँ बलिदान से मेरा तात्पर्य है अपने इष्ट को सिद्ध या प्रसन्न करने के लिए कुछ भेंट स्वरुप चढ़ाना जैसे पहेल की देवी देवताओं के लिए बलि दी जाती थी |
मगर यह दर्शन संकीर्ण है | इकतरफा है और अपूर्ण भी है | इसकी व्याख्या दो चरणों में की जा सकती है |
पहले तो बलिदान निःस्वार्थ हो यह नितांत दुर्लभ है | बलिदान में प्रत्याशा होती है | बदले में कुछ पाने की लालसा होती है | अभीष्ट के न मिलने पर निराश भी होती है | बलिदान कुछ पाने के लिए उसकी कीमत चुकाने जैसा है बस यहाँ कीमत पहले अदा की जाती है | बलिदान वास्तव में "दान" नहीं है | यह एक सौदा है, खरीद फरोख्त है यहाँ तक कि भ्रष्टाचरण है | जब हम बलिदान की व्याख्या को अतिशय तक खींचकर भ्रष्टाचार तक ले आते हैं तब पाप और पुण्य का भेद मिट जाता है | ऐसा लगने लगता है की जो आचरण अभी तक उदात्त बलिदान था वह सहसा लालच, स्वार्थ और भ्रष्टाचार बन चुका है | अब अच्छे बुरे का भेद मिटने लगता है | काल सफ़ेद में घुलने लगता है | दोनों के मिलने से सिलेटी बनने लगता है जो कभी सफ़ेद लगता है तो कभी काला पर होता इन दोनों में से कोई भी नहीं है |
दूसरी बात और भी ज्यादा चौंकाने वाली है | यह दान लेने और देने वाले के बीच का समझौता है जिसमे दान की जाने वाली "वस्तु" की अपनी कोई हैसियत नहीं है | वह वस्तुमात्र है क्योंकि वस्तुतः उसकी अपनी कोई वास्तविक पहिचान नहीं है | वह हेय है | बलिदान ही उसकी पहिचान है | बलिदान हो जाना ही उसकी नियति भी है और प्रगति भी | यही उसकी परम सुगति है | उसकी अपनी इच्छा के कोई मायने नहीं हैं | सोचो न कितनी गायों, खेतों, दास, दासियों को दान किया गया क्या कभी उनसे उनकी सहमति ली गयी ?
कम से कम इन दो जगहों पर बलिदान का संकीर्ण और स्याह रूप सामने आता है लेकिन इसी व्याख्या में थोडा आगे और बढ़ें तो बलिदान का एक रूप ऐसा भी है जो सब बातों से ऊपर है | वह सचमुच श्रेष्ठतम है | सबसे निर्मल, सबसे उदात्त और पवित्र- वह है आत्म बलिदान | आत्मबलिदान वह है जिसमे दान करने वाला और दान की जाने वाली "वास्तु" दोनों एक ही हों ।
आत्मबलिदान निःस्वार्थ होता है | इसमें प्रत्याशा नहीं होती | खुद को बलिदान करने में चूँकि जीवन का अंत होजाता है अतः निराशा भी नहीं होती | यहाँ काला सफ़ेद को गंदा नहीं कर पाता | बलिदान और आत्मबलिदान में यही मुख्य अंतर है की एक में कामना है दूसरा निष्काम | अब सवाल यह उठता है की क्या सभी आत्मबलिदान एक से होते है ? क्या सब का महत्त्व सामान है ? तो इसका जवाब भी है |
दो बिलकुल अलग अलग नदियों का निष्कर्ष और पराकाष्ठा एक ही समुद्र हो सकता है मगर इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि दोनों नदियाँ एक सी हैं या दोनों का महत्व सामान है | नदियों में भिन्नता तो इस बात पर निर्भर करती है कि उनका पानी प्राणिमात्र के लिए कितना उपयोगी या अनुपयोगी है | समुद्र तो उनका आखिरी पड़ाव है जो सबसे कम महत्त्व रखता है | इसी तरह आत्मबलिदान का महत्त्व इस बात पर निर्भर है की यह किया किसके लिए गया | यदि यह निःस्वार्थ है तो श्रेष्ठ है नहीं तो इसमें भी कोई ख़ास बात नहीं |
आत्मबलिदान में "वस्तु" स्वयं को बलिदान कर देती है खुद की इच्छा से- यही इसकी शक्ति है | इसकी सबसे बड़ी कमजोरी इसकी शक्ति में ही अन्तर्निहित है | अगर कोई व्यक्ति किसी हेतु के लिए स्वयं को समाप्त कर दे तो उसको क्या मिला जो बलिवेदी पर चढ़ गया | जब तक जान है तभी तक जहान है | जीवन के उच्छेद के बाद किसी के होने न होने से क्या फर्क पड़ता है | जो भोग लो वही सुख है | उच्छेद के बाद भोग संभव नहीं तो सुख का तो प्रश्न ही नहीं उठता | कुछ लोग यह तर्क रखते हैं कि यह भी तो हो सकता है कि आत्मबलिदानी के सुख का केंद्र स्वयं के बलिदान में ही हो ! मगर यह उसकी क्षणिक तात्कालिक मनोदशा भी तो हो सकती है- इसका क्या जवाब है? मनुष्य तो परिवर्तनशील है ही उसका मन तो ब्रह्माण्ड में सबसे जल्दी बदलने वाली चीज़ है । हो सकता है कुछ साल और जीवित रहने पर उसके "सुख का केंद्र" बदल जाता मगर आत्मबलिदान ऐसी सभी संभावनाओं को समाप्त कर देता है | मरने के बाद सुधार की कोई गुंजाइश नहीं | इस रास्ते पर पीछे जाने की कोई संभावना नहीं !
फिर भी इस तरह के दुरूह रास्तों को चुनना पड़ता है | अँधेरी कोठरी में एक कमज़ोर सा ही सही मगर दिया जलाना पड़ता है| किसी को तो ये करना ही पड़ता है| यहाँ मैंने वो "किसी" होना चुना!
तुम्हारा निर्णय अपना है जैसा चाहो चुनो लेकिन इतना जान लो कि मुझे अपने फैसले पर कोई दुःख या पछतावा नहीं है क्योंकि इस अंत को ध्यान में रखकर ही मैंने ये निर्णय लिया था | तुम भी वही करना जिसमे तुम्हे कभी पछतावा न हो |”
चूल्हे की आग ठंडी होती रही | रात बीतती रही |
अँधेरे कमरे में कोने पर एक धुंधली शिखा वाला दिया अब भी जल रहा था |