Wednesday, 29 May 2013

अभयवाद

कहीं जातिवाद की जोंकें हैं 
कहीं क्षेत्रवाद के क्षत्रप 
कहीं व्यक्तिवाद का विष मानव 
कहीं वंशवाद के तक्षक 

इस भक्षक व्यूह को तोड़ सके 
बस अभयवाद इक रक्षक  

जो सबको धूल चटा दे 
वादों से वाद मिटा दे 

कृष्ण कोठरी में रहकर 
जो निर्विवाद है 
वह अभयवाद है  !


सत्तावन से सैंतालिस तक
संघर्ष हुआ प्रतिवर्ष हुआ
कुछ शीश कटे कुछ रक्त बहा
यह पीढ़ी सब कुछ भूल चुकी
अब किसे याद है ?

जो सब कुछ स्मरण करा दे
नस नस में आग बहा दे
वह अभयवाद है !

यह शाश्वत "स्वर"
यह मौन मुखर
यह विप्लव ध्वनि
यह शक्ति प्रखर

यह प्रलयनाद है
यह अभयवाद है !



Friday, 24 May 2013

माँ


जब नींद नहीं आती
तब तुम याद आती हो ।

जब तुम याद आती हो
तब नींद नहीं आती । 

तीसरा जहाँ, नौवाँ पहर


मैं तेरी चाह में भटकता फिरा दोनों जहाँ
तू मेरी आस में तड़पती रही आठों पहर
मैं तीसरे जहाँ की आस में हूँ आज तलक
तू नवें पहर की चाह में है शाम सहर

ये ज़मी और चाँद रात भी मिले हैं कभी 
एक बार फिर से वो जुम्बिश है आजमाइश है
ऐसा भी कभी दुनिया में होता है कहीं !
ऐसा भी कभी दुनिया में होता तो नहीं !

ये अलग बात है तुम अब भी मुझमें शामिल हो
मगर रज़ा है के अब रुबरु हो हासिल हो
मुझे यकीं है हम मिलेंगे इस सफ़र में कहीं
जहाँ हो तीसरा या नौवाँ पहर ही सही

ये ज़मीं चाँद रात रुक के हमसे पूछेंगे
के कुछ अजब है इस जुम्बिश में आजमाइश में
ऐसा भी कभी दुनिया में होता है कहीं !
ऐसा भी कभी दुनिया में होता तो नहीं !

मैं ये कहूँगा ये ग़ज़लें है- जुम्बिशें इनकी
बतौर नज्मों के ये ज़ोर आजमाइश है
इन्ही ने तीसरा जहाँ नया बनाया है
इन्हीं की नौवें पहर की ये फरमाइश है

मेरी कलम भी तुम्हीं हो मेरा कलाम तुम्हीं 
इसी कलाम से तुम तक पहुँच की ख्वाहिश है
ऐसा भी कभी दुनिया में होता है कहीं !
ऐसा भी कभी दुनिया में होता तो नहीं !

#तुम्हारे लिए

गर मैं कुछ ऐसा कर पाऊँ



क्लाइमेट चेंज के मंच सजे 
हैं ग्रीन ग्रोथ के अधिवक्ता
हैं सावन के अंधे सारे
जिन्हें दीखे सब कुछ हरा-हरा

गाँवों के सूखे चेहरों की
कालिख अगर मिटा पाऊं
तो मानूँगा मैं भी कुछ हूँ
गर मैं कुछ ऐसा कर पाऊँ

वे छोटे लड़के गंदे से
दिन भर जो कचरा बिनते हैं
चौराहों पर फुटपाथों पर
फेंके हुए सिक्के गिनते हैं

उन कूड़े वाले हाथों में
गर कागज़ कलम थमा पाऊं
तो मानूँगा मैं भी कुछ हूँ
गर मैं कुछ ऐसा कर पाऊँ

मैं मुखर निडर आलोचक हूँ
सच कहने का दम भरता हूँ
वाणी से गरल उगलता हूँ
सच कहने से कब डरता हूँ !

गर खुद की निंदा के दो "स्वर"
बिन क्रोधित हुए पचा पाऊँ
तो मानूँगा मैं भी कुछ हूँ
गर मैं कुछ ऐसा कर पाऊँ

बेहतरीन बकवास


एक टूटते टूटते जुड़ जाती है
दूजी जुड़ते जुड़ते टूट जाती है

एक आस है
दूजी साँस है

दोनों मिलाके ज़िंदगी बनती है
जो बेहतरीन बकवास है ! 

शायर की शहादत

शायर को मरना होगा...

तोड़ के
चूरा करके
उस 
बेख़ौफ़
बेलौस
बेमुरव्वत
बदतमीज़ मगर सच्चे शायर को
खाद बनाई जाये 

कत्ले आम शायर का वक़्त की नज़ाकत है
नस्ल ए हिन्दुस्तान को खाद की ज़रूरत है !

शायर की शहादत से औज़ार रवाँ होता है
इन्कलाब होता है मुल्क़ जवाँ होता है !



Saturday, 18 May 2013

काली चुड़ैल

बहुत पुरानी बात है । एक गाँव था- झील वाला गाँव । तीन ओर पहाड़ियों से और चौथी ओर से झील से घिरा । सोया-सोया सा शांत सा गाँव । गाँव वाले भेड़ बकरियां पालते और दुनिया से कटे इस गाँव में खुश रहते । कोई चिन्ता नहीं थी सिवाय काली चुड़ैल के । 

काली चुड़ैल अपने नाम के ही अनुसार काली और नौ फुट लम्बी थी । कहते थे उसकी तीन आँखें थीं- दो आगे; एक पीछे । सबका मानना था की उसकी तीसरी आँख ज़रूर सिर में पीछे की तरफ रही होगी तभी तो वो एक ही समय में चारो तरफ देख लेती थी । उसके नाख़ून लोहे के थे । दस हाथियों की ताक़त थी उसमे । मरे हुए बैलों को मीलों घसीट कर ले जा सकती थी । कभी कभी बैलों और बकरियों की हड्डियाँ पहाड़ियों के उस ओर मिला करती थीं । 

जाने कहाँ रहती थी ! कहते हैं तीनों पहाड़ियों में कुल मिला कर जो सत्तासी गुफाएं हैं उन्हीं में से किसी एक गुफा में रहती थी काली चुड़ैल । मगर एक बात पक्की थी अमावस की रात निकलती थी वो !
पहले झील में नहाती थी । फिर पहाड़ियों के जंगलों में घूमती फिरती । सरसराती जोर की हवाएं जब सूखे बांसों के कोटरों में पड़ती तो भयानक सूँ sss सूँ sss सूँ  की आवाजें पूरी वादी में भर जातीं । गाँव के लोग जान जाते कि अब चुड़ैल नाचेगी । 

चुड़ैल नाचेगी ! बाप रे !! इसका एहसास होते ही लोग घरों में बंद हो जाते । दुबके रहते क्योंकि सबको पता था कि जी भरकर  नाच लेने के बाद काली चुड़ैल और भी भूखी हो जाती थी । अब थकी,भूखी, खूंखार चुड़ैल पहाड़ियों से उतरकर गाँव में मंडराती- कनेर के फूल, हरी दूब और मेमनों  की तलाश में ।  यही सब पसंद था उसे । पीले पीले कनेर के फूल खूब हरी दूब और छोटे मेमने ! एक में कहाँ भूख मिट ती थी उसकी- कभी तीन कभी चार मेमने गायब ! पूरा निगल जाती थी- हड्डियों सहित ! 

लेकिन इतने से ही उसका मन न भरता । जाते जाते गाँव को अभिशप्त भी कर जाती जब तब । कहते हैं एक बार कोई मेमना नहीं मिला था चुड़ैल को, गुस्से में आके उसने गाँव पर जादू टोना कर दिया कि गाँव के सब लोग अंधे हो जाएँ । जादू एकदम पक्का था उसका बहुत से लोग अंधे हो गये बहुतों की आँख की रौशनी जाती रही । हर अमावस की रात वो आती और टोना बाँध जाती । 

काली चुड़ैल के अलावा एक और ख़ास बात थी उस झील वाले गाँव की और वह था "झील वाली माता" का मंदिर । झील के किनारे माता की लाल मूर्ति वाला पुराना मंदिर । कहते हैं ये लाल मूर्ति उस बड़े से पत्थर से बनी थी जो झील में से बहुत पहले निकाला गया था । वास्तव में यह झील जीवनदायनी थी । यही झील पीने के पानी का एकमात्र स्रोत थी पिछले पचास एक सालों से जब से पहाड़ियों का वह आखिरी झरना सूखा था । 
झील का पानी हल्का लाल था लेकिन था बहुत मीठा । इतना मीठा की आधा ग्लास से ज्यादा कोई पी भी न सके ।  झील वाली माता ने पानी में "शांति के तत्व" भी घोल रखे थे शायद ।  अच्छी नींद आती थी पीकर । भेड़  बकरियां तो मानों नींद में ही रहती थीं । दो कदम भी नहीं चल पाती थीं भेड़ें जब तक उन्हें आवाज़ देके दिशा न दिखाओ । 

चुड़ैल के जादू से जब सब अंधे होने लगे और झील वाली माता के मंदिर आकर भव्य अनुष्ठान किया गया तो साल भर के भीतर ही चमत्कार हुआ । अजीब सी कांच की बड़ी बड़ी शीशियों में हरी पीली दवा दिखाई पड़ी लोगों को मंदिर के अन्दर । वो भी ठीक अमावस की रात के अगले दिन । लोगों को यह समझते देर न लगी कि अमावस वाली रात को चुड़ैल के हर टोने के बाद झील वाली माता ये दवाइयां देती हैं गाँव को । दवा को प्रसाद के रूप में ग्रहण करने पर लोगों की नज़र में सुधार हुआ । रौशनी वापस आने लगी । अब तो हर अमावस की रात के बाद लोगों को इस दवा का ही आसरा होता । गाँव के बड़े बूढ़े तड़के हरी पीली दवा की शीशियां मंदिर से लाकर झील के पानी में घोल देते । पानी को पीने से पूरे गाँव का अंधापन जाता रहता । 

यह तो झील वाली माता की कृपा ही थी वरना तो काली चुड़ैल के जादू से पूरा गाँव कभी का अँधा हो चुका होता ! 
"देवी माताएं बोलती नहीं- मौन रहती हैं । एकदम मूक । बस आशीर्वाद बरसाती हैं देवी माताएं ! झील वाली माता की जय हो !!"


(2)


आखिर कब तक चलता ऐसे डर डर के । एक दिन गाँव के बीस पच्चीस जवान लोगों ने चुड़ैल को मारने की ठानी । पूरी तैयारी की  गयी बल्लम भाले बरछी गंडासे पैने किये गए और अब इंतज़ार बस अमावस की रात का था ।  
अमावस की रात !
घुप्प अँधेरा । जोर की हवाएं ! बासों के सूखे झुरमुट के कोटरों से हवाएं टकराती जातीं- सूँ sss सूँ sss सूँ   । अब चुड़ैल आएगी कनेर के फूल, हरी दूब और मेमनों  की तलाश में । अभी तो नाच रही होगी । पहाड़ी पर होगी ...जाने कब तक आएगी! तभी एक लड़का चिल्लाता है वो देखो मंदिर के पीछे कोई घूम रहा है । ध्यान लगा के देखा सबने; हाँ कुछ तो है ! लेकिन नौ फुट लम्बा नहीं होगा । 

अरे भागी ! काली चुड़ैल ही है ! भाग रही है ! मगर उतनी तेज़ भी नहीं ! उसके हाथ में देखो दो मेमने तो दिख ही रहे हैं ! भागो ! भागो !! मारो ! मारो ! बच के न जाये !

बीस पच्चीस आंशिक रूप से अंधे लोगों का झुण्ड हाथ में बरछी भाले लिए चुड़ैल की और लपका । चुड़ैल भागी, उसने सामना नहीं किया । शायद भूखी और थकी हुई थी इसीलिए मेमने लेकर भागती रही । फिर मेमने उसके हाथ से गिर गए- ऊपर चढ़ती रही पहाड़ी पर । अब तक लोग काफी करीब आ गए थे- एकदम पास तक । तभी चुड़ैल-जो एक काले रंग का लबादा ओढ़े थी - एक गुफा में घुसने लगी । 

खचाक्क्क्क !
एक नुकीला भाला आकर पीठ में लगा चुड़ैल के और चुड़ैल वहीँ बैठ गयी । लोग जहाँ थे वहीँ रुक गये; डर के मारे कांपने लगे । वे जानते थे की अब चुड़ैल घायल है भूखी है और खूंखार भी है । यह भी जानते थे कि अपनी तीसरी आँख से सबको देख रही है और अगला वार काली चुड़ैल का ही होगा । अब तो वो अपनी गुफा के पास भी आचुकी है और वे लोग गाँव से काफी दूर; अब तो भागना भी बेकार है । बचना मुश्किल है । सब मरेंगे । सबसे बदला लेगी वो । सबके खून जम गए और साँसें थमने लगीं । 

लेकिन यह क्या ! काली चुड़ैल लुढ़ककर एक ओर  गिर गयी । पौ  फट चुकी थी; चेहरे पहचान में आने लगे थे । चुड़ैल के शरीर में जो हरकत और जुम्बिश हो रही थी वो भी धीरे धीरे बंद होने लगी । थोड़ी देर में चुड़ैल का शरीर एकदम शांत हो गया । 
तो क्या मर गयी काली चुड़ैल ! इतनी आसानी से! किसी ने पास जाके देखा- सचमुच मर चुकी थी वो ! पूरे गाँव में ख़ुशी की लहर बिजली की तरह दौड़ गयी । मगर रुको ! ये तो कोई चुड़ैल नहीं है- बुढ़िया है ये । बुढ़िया ! कौन बुढ़िया ?

कोई पहिचान नहीं पाया उसे । न उसके तीन आँखें थी न ही लोहे के नाख़ून ! उम्र सत्तर अस्सी के बीच रही होगी । तभी भाग नहीं पा रही थी । उसकी गुफा में एक भरी पूरी घरेलू प्रयोगशाला सी थी । रासायनिक उपकरणनुमा तामझाम में एक किनारे कांच के बर्तन में झील का लाल पानी भरा था जिसमे मेमने की हड्डियाँ, हरी दूब और पीले कनेर के फूलों की पत्तियां दिखाई पड़ रही थीं । उपकरण के बीच बीच में बहुत सारे यंत्र से लगे थे जिसके दूसरे छोर पर हरा पीला द्रव टपक रहा था जो एक बड़े से बर्तन में इकठ्ठा हो रहा था । पास ही दर्जन भर खाली शीशियाँ बड़े करीने से रखी थीं ठीक वैसी ही शीशियाँ जो अमावस के बाद मंदिर से मिला करती थीं । 

ये चुड़ैल नहीं थी । ये तो दवा बनाती थी यहाँ । तो क्या इस झील के लाल पानी में अँधा कर देने वाला ज़हरीला रसायन घुल हुआ है ? वो लाल मूर्ति वाला पत्थर भी ज़हर है । ऐसे बहुत सारे पत्थर हैं झील की तली में । मतलब झील वाली माता जैसी कोई देवी नहीं हैं ! मतलब कि झील ही चुड़ैल है असल में जो लोगों को अपने पानी से अन्धा कर रही थी झरने सूख जाने के बाद से ! और यह चुड़ैल असल में चुड़ैल नहीं देवी थी ! दवा की देवी !! मगर ये छुप के क्यों रहती थी? किसी को पता तक नहीं चलने दिया !

चुड़ैल रुपी देवी का शरीर शांत पड़ा था । एकदम मौन थी वो । चारों तरफ निस्तब्धता और मौत का सन्नाटा छाया हुआ था । 

''देवी माताएं बोलती नहीं- मौन रहती हैं । एकदम मूक । बस आशीर्वाद बरसाती हैं देवी माताएं ! दवा वाली माता की जय हो !"

-स्वर (17 मई 13)














 

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