Thursday 2 February 2012

आज़ादी



मैंने देखा कि गली में
एक लड़का तिरंगा लेकर 
ख़ुशी में भाग रहा है
और सारे घरों पे तिरंगा लहरा रहा है...

छत पे बैठे
सफ़ेद कबूतरों के झुण्ड 
को देखा और सोचा
पन्द्रह अगस्त को 
कौन-कौन आज़ाद हुआ था...

फिर गली में फुटपाथ पे 
भूखी बुढ़िया को 
देखा और सोचा
पन्द्रह अगस्त को 
कौन-कौन आज़ाद हुआ था... 

-स्वतःवज्र 

एक साथ

 
वो कब आयेगा जो
तोड़ के इक मंदिर
तोड़ के इक गिरजा
तोड़ के इक मसजिद अज़ीम
एक साथ...

उस मलबे से
एक मुसाफ़िरखाना बनाये
जिसमे सब बैठ सकें
एक साथ !

वो कब आयेगा...

-स्वतःवज्र 

बे-मौसम, बिन बादल, बरखा...

आँसू आँख की डेहरी पर
खड़े होके
बहते नहीं 
किस बात का  
इंतज़ार करते हैं 

पलकें  बढ़  के
खींच लेती हैं
बरबस ..

तब  ढकेले  जाने  पे 
फिसलके चेहरे को
नमकीन करते हैं

और इस तरह
बे-मौसम
बिन बादल
बरखा होती है...

-स्वतःवज्र

* Good Morning *

 
हल्की  आहट
कानों  में  गिरी

इंतज़ार  ख़त्म  हुआ  चलो

जल्दी दरवाज़ा खोलो
पलकों का

सुबह चली न जाये
साथ सबा के

दूसरे दिन वाले
घर को...

* कूड़ा तो नहीं *

मैंने जो भी कूड़ा
घर से बाहर फेंका है
वो छोटी लड़की  
उसमें से बीना करती है

अगर ये काम का है
तो कूड़ा क्यों है ?

* अफ़रा-तफ़री *

 
ये सारे कामकाजी लोग, दुनिया के
कहाँ भागते जाते हैं ?
सुबह से शाम तलक
ट्रेनों में
बसों में
या पैदल ही

शुक्र है घर भी हैं
इनकेऔर शाम को
लौटना पड़ता है

वरना जाने
कितनी दूर निकल जाते
ये कामकाजी लोग
ज़हीन से
मेरे जैसे (?)...

-स्वतःवज्र

* मेरी रेशेदार उम्र से परे *

समय का एक मोटा टुकड़ा "दिन" खरीदा
सस्ते में

उसकी चौबीस फाँकें करके
कमरे में छितरा दी हैं

एक फाँक के साठ कतरे किये
एक कतरा ले हाथों में

फिर उसके साठ रेशे 
अलग-अलग कर रहा हूँ..

ये रेशा किस चीज़ का बना है ?
तेज़ी से घुल रहा है मुझमें..

गिनते गए रेशे और 
ये मोटा टुकड़ा "दिन" बीत गया

दिन तो फ़क़त रेशे, कतरे, फाँकें, टुकड़े सा लगा

और हम इसे इक उम्र समझते थे पहले

नासमझी में कितने
रेशे रिसे
कतरे खोये
फाँकें फिसली
टुकड़े टूटे...

जो रेशे घुल चुके वो नहीं आएंगे

जो आए नहीं वो नहीं हैं यहाँ

जो रेशा हाथ में है
वो तो गिनती भर का है

इसमें मेरी उम्र कहाँ है
किस चीज़ की बुनी हुई है
ये उम्र मेरी...

रेशेदार, फाँकवाली,  कतरा-कतरा,  टुकड़ों वाली उम्र 
किसने बुनी ?
किसके लिए ?
किस धागे से ?

मैं इस बुने से
बाहर देख पा रहा हूँ...
और देख रहा हूँ के 
इसमें उलझा हुआ हूँ मैं...

इस रेशेदार उम्र से परे क्या होगा 
ये सोच रहा हूँ...

-स्वतःवज्र 

Wednesday 1 February 2012

जा रहा हूँ बाइंडिंग उधेड़ने...

मेरे दिन 
किताब के पन्नों की तरह हैं
सारे जुड़े हैं
एक किनारे
बीता हुआ कल
अभी तक चिपका है
पीठ पे...

आने वाला कल 
अभी आया नहीं पर 
आज का पन्ना 
लदा हुआ है उसपे...

जी करता है 
बाइंडिंग उधेड़ दूँ
और
छितरा दूँ सारे पन्ने 
अलग अलग...

मेरे बीते कल के जूठन 
मुक्त हो उड़ें
पंखे की हवा में 
निकल जाएँ 
दरीचे से बाहर
बागों में...
आने वाला कल 
उड़कर घुस जाये
बिस्तर के नीचे

और आज का पन्ना 
मेरे हाथ में हो
जैसे अखबार हो 
सुबह का
 
अखबार के पन्ने 
साथ तो हैं
पर बेवजह चिपके नहीं...

जा रहा हूँ 
बाइंडिंग उधेड़ने 
और किताब को 
अखबार बनाने...

-स्वतःवज्र
 
    
 

स्वर ♪ ♫ .... | Creative Commons Attribution- Noncommercial License | Dandy Dandilion Designed by Simply Fabulous Blogger Templates