आज चंदा कुछ नाराज़ सी थी ,
सोलह में से केवल आठ कलाएं !
केवल आठ सिंगार !!
आधा चेहरा काले घूँघट में ढक रखा था |
ए जी चंदा ! लो हम आ गए , देखो न इधर !
चंदा बोली - हम नाराज़ हैं, क्यूंकि तुम्हारे आँगन की वो "रात की रानी" तुम्हे छूती है... वह पास जो है इतनी !
ओह चंदा !
मगर "रात की रानी" हरदम साथ तो नहीं -
पास हो के भी नहीं !
वो आंगन में इतनी पास है कि हरदम दूर है ,
दूरी के कारण ही तुम हरदम साथ हो ...हर रात !
जहाँ भी गए हम इस दुनिया में ,
मेरी चंदा सामने थी क्यूंकि तुम दूर थी !
दूरी में ही प्रेम की असली अनुभूति है,
प्रेम स्पर्श में नहीं -
स्पर्श की अनुभूति में है |
चंदा ! अनुभूति स्पर्श में नहीं ,
वह तो स्पर्श की उम्मीद में है .. हर बार ..
सौंदर्य-प्रेम के लिए पास आना ज़रूरी हो सकता है ,
लेकिन " प्रेम का सौंदर्य " दूरी में ही है |
हमारे बीच की ये पौने चार लाख किलोमीटर की दूरियाँ भी कुछ नहीं ,
तुम्हारी चांदनी की सफ़ेद चमक यहाँ भी पुरज़ोर है चंदा !
शरारती चंदा ने हलकी अंगड़ाई लेते हुए ,
एक मुट्ठी गीली चांदनी और एक मुट्ठी ठंडी पवन फेंकी .. हमारी ओर..
और चंदा मुस्कुरा दी !
- स्वरोचिष "स्वतःवज्र " (26-12-10)