यूँ तो लिखने वालों की भरमार काफ़ी है
पर हिन्दी में लिखने की दरकार काफ़ी है
दुनिया कहती है कि परबत कट नहीं सकता
मुझको लगता है कि मुझमें धार काफ़ी है
सच्चे लोगों की चमड़ी से जूते ही बनते हैं यहाँ
ऐसे सच्चे लोगों का अम्बार काफ़ी है
दस्तरखान सज़ा होता है सब लाइन से खाते हैं
भ्रष्ट अफसरों में भी शिष्टाचार काफ़ी है
सच का रस्ता मुश्किल है पर गर ऐसा हो पाए तो
तख्त पलटने को सच्चा अख़बार काफ़ी है
ज़िंदा पेड़ कलम कर कितनी मुश्किल से ये नाव बनी
नाव डुबाने को टूटी पतवार काफ़ी है
रंगमंच है दुनिया सारी हम सब इसकी कठपुतली
हर नाटक में इक उम्दा किरदार काफ़ी है
कैसे तुम आज़ाद हुए थे वो सब याद दिलाने को
बस पुरखों की ज़ंग लगी तलवार काफ़ी है
कोने में चुपचाप खड़ा है शायर है, कायर तो नहीं
ऐसा वैसा दिखता पर तैयार काफ़ी है
बड़ी बड़ी बातों के माने क्या समझें, हम हैं बुद्धू
छोटी मोटी बातों का विस्तार काफ़ी है
पीने वाला बैठ के अपनी दुनिया तय कर लेता है
इक दाएँ इक बाएँ बस दो यार काफ़ी हैं
भीषण बरखा, तेज़ हवाएँ, गीली लकड़ी फ़िक्र न कर
आग लगेगी “स्वर” तेरे अशआर काफ़ी हैं