Friday 2 November 2012

चन्दा और तारा मछली- आखिरी शब शायद

चन्दा बोली
ये ज्वार-भाटे मेरे ज़रिये हैं
मैं समन्दर पर राज करती हूँ
लहरों की रानी हूँ मैं

तुम देखो ये विशाल सागर बेबस है
अपनी लहरों पर बस नहीं उसका
इसीलिए शोर करता है
बेवजह हर ओर करता है

तुम्हारे लिए इक सौगात है मेरे पास
पता नहीं कब मुलाक़ात हो अब
शायद आखिरी शब साथ हो अब !

एक चढ़ती हुई लहर मेरे पैरों से गर्म हुई
और पानी के पतले शीशे में धँसा
रेत पर जमा हुआ
मैं बेहिस खड़ा था !

लहर वो वापस लौटी तो
घुलकर पतला होता शीशा
खतम हुआ था
देख के हैरत
गीली रेत में चार सीपियाँ यादों की
और एक तड़पती तारा मछली !

सीपियाँ मैंने दिल में छुपा लीं
और तारा मछली को खुले हाथों में रखते हुए
चन्दा से कहा
यादों की ये सीपियाँ तो सुपुर्द-ए -दिल कर दीं मैंने
पर ये तारा मछली मैं खुद हूँ

मैं खुद हूँ
ये तारा मछली !
एक  तड़पती तारा मछली !

ये तड़पती है बिन पानी
मैं चाँदनी के बिना
तड़पा करता हूँ
रात बुझते ही
दिन जलते ही
तुम्हारे चलते ही !

चन्दा !
चलने का वक़्त आ गया है शायद
पता नहीं कब मुलाक़ात हो अब
शायद आखिरी शब साथ हो अब !
तुम्हारे लिए इक सौगात है मेरे पास भी...

ये कह अपनी सारी नज़्में
जो चन्दा पर लिक्खी थीं
और नज़्मो के सारे सफ्हे
छोटी छोटी नाव बना के
चाँदनी में दो बार डुबा के
सागर की उस लहर को दे दी
जो चन्दा की प्यारी थी !

याद है मुझको चंदा अब भी
तारा मछली देख के मुझको देखा तुमने,
यादों की सीपी बिखरा दी
मैं मुस्का के रो दिया
और चन्दा रोके मुस्कुरा दी !
 

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