Saturday 17 November 2012

प्रति- शुद्धीकरण




बात आज सुबह की ही है । वैसे आजकल कमर में दर्द है, कमर में चोट लग गयी थी पिछले साल जिम में  बाद मे पता चला डिस्क स्लिप है, सो दर्द रहता है | आज पीटी ग्राउण्ड से हॉस्टल लौट रहे थे, एथलेटिक मीट जो थी | रस्ते में काफी चढ़ाई है दूरी भी काफी है, डेढ़ किलोमीटर हो शायद । कमर में दर्द भी था, तो सड़क के किनारे कहीं बैठने का मन बनाया था | सोचा थोड़ा रुक रुक कर चलेंगे | तभी बाईं ओर एक गुमटी सी दिखाई दी जिस पर लिखा था कि वो आँगनवाड़ी केन्द्र था |

एक बच्चा रोड के किनारे की रेलिंग से लटका हुआ था | पहाड़ के चक्करदार  गोल रास्तों मे खाईं की तरफ जो रेलिंग होती है उसी रेलिंग से | मुझे लगा की ये गिरेगा, मैं भाग के उसके पास गया और पकड़ लिया उसे | उसने घूर कर देखा | लड़का सात आठ साल का था | गंदा चहरा गंदे बाल और कपड़े तो और भी गंदे, लेकिन वो इस समय गंदा कम और गुस्से मे ज़्यादा लग रहा था | मुझे घूरकर देखा और बोला- “छोड़ दो मुझे!” और मैने सुना- “छोड़ दो मुझे मेरे हाल पे!”


तभी एक महिला जो ज़रूर आँगनवाड़ी की सदस्या थी, बोली
- सर ये पेन्सिल लेने जा रहा  है | 
- अरे! अगर नीचे गिर गया होता तो?
- रोज़ यहीं से ऊपर नीचे जाते हैं ये बच्चे | नीचे इनके घर हैं | कुछ नहीं होता |

मैडम ने मुझे मेरे पीटी ड्रेस मे पहचान लिया था (कि मैं ऑफीसर ट्रेनी हूँ) | इसलिए सर कहा, मुस्कुराईं और खड़ी हो गयीं |
- नमस्ते मैडम! कितने बच्चे हैं यहाँ पे?
- ग्यारह हैं |

बच्चे उस छोटी सी गुमटी मे बैठे थे | पीछे की दीवार से सटकर कुकर और बर्तन रखे थे, मिड डे मील का सामान बची खुची जगह में बच्चे ठूँसे बैठे थे मैडम बाहर बैठने पे मजबूर थीं । बरबस मुझे एकेडेमी का लाउन्ज याद आ गया जो शानदार है, जिसमें ऑफिसर ट्रेनीज़ वीकेंड्स में ड्रिंक्स लेते हैं और नाचते हैं, बाकी सप्ताह में लाउन्ज खाली खाली सा ही रहता है | मगर वो ऑफिसर्स लाउन्ज है और ये आँगनवाड़ी ! दोनों में तुलना असंभव ही नहीं अनुचित भी है !

सोनिका कुछ गिन रही थी, मोनिका लेट कर किताब को मोड़ रही थी, नीरज और राहुल लड़ रहे थे, हुसना रो रही थी | ज़मीन पर बोरे बिछे थे, गंदे थे, पर बच्चों से कम गंदे थे, स्वाभाविक रूप से | 

मुझे बुरा लगा, पता नहीं क्यूँ लगा! सब तो पता है मुझे, यही सब होता है इन जगहों पर, फिर भी लगा जाने क्यूँ और ये सब सोचते ही बुरा लगना कम हो गया! जाने क्यूँ! शायद इसीलिए कहते हैं कि बोध, स्वीकार्यता की पहली सीढ़ी है ।
मैने बैठना चाहा, और दिखाना चाहा कि मैं तुम जैसे गंदे बच्चों के बीच बैठने मे भी नहीं हिचकिचाता; जबकि बैठने का कारण मेरा उनके प्रति प्रेम या समानुभूति नहीं बल्कि मेरा कमर दर्द और तीखी चढ़ाई थी |

बच्चे मुझे देखकर असहज हो रहे थे | मैं बच्चों की गंदगी देखकर और भी असहज हो रहा था | मैडम खड़ी थीं और सबसे ज़्यादा असहज लग रहीं थीं  

मैं- बैठ जाइए मैडम!
और चलो बच्चों नाम बताओ अपने अपने!

बच्चे चुप थे | उन्हे पता था इस सवाल का कोई मतलब नहीं है, जिस तबके से वो आते हैं उस तबके मे लोगों के नाम नहीं वोटर कार्ड भर होते हैं | नाम मे क्या रखा है आख़िर, नाम जानकार कर भी क्या लोगे आख़िर? याद भी तो नहीं कर पाओगे…

मैं- जो अपना नाम सबसे पहले बताएगा उसे ये टोपी मिलेगी |
“सोनिका!” मेरा नाम सोनिका है!
मैं- वाह! अच्छा नाम है, ये लो टोपी | 

कहके मैने अपनी टोपी उतारकर सोनिका को देने को हुआ। सोनिका मुस्कुराई  | काला चेहरा | ध्यान से देखने पर पता चला की चहरा उतना काला नहीं था जितना कि उपेक्षा और संवेदनहींनता की धूल ने उसे बना दिया था | चेहरे पर धूल की एक मोटी परत थी जो समय के साथ पक्की होती जा रही थी | इस धूल की परत की मोटी दीवार के पीछे की सुन्दर सोनिका दिखी मुझे | सोनिका! क़ैद हो तुम इस धूल की परत मे | कौन तुम्हे रिहा कराए?
मैं? 
मैं नहीं! 
मैं तो बस यहाँ से निकल रहा हूँ, यहाँ से निकल जाऊँगा बस कुछ देर मे | 

सोनिका की मुस्कुराहट ने भोलेपन से कहा- पता है आप बस थोड़ी देर के लिए आए हैं | मैं सात बरस की हूँ पर नादान नहीं, आप सत्ताईस के हैं पर इतने नादान क्यूँ हैं? मुझे इस धूल की परत से कोई नहीं निकाल सकता | ये धूल की परत ही है जो मुझे बचाए रखती है वरना मेरी पहचान ही खो जाती | मेरे पापा आपकी एकॅडमी मे काम करते हैं | साफ़ सफाई करते हैं- आपके रूम की, एकॅडमी की, सारी दुनिया की | सारी दुनिया की धूल उनके हिस्से! ये वही धूल है | आप लोग बड़े अफ़सर बनेंगे | आपके पैरों की धूल उड़कर मेरे पापा के हाथों मे लिपट जाएगी | जब पापा हमें दुलराएँगे तो यही धूल हमें हमारा अस्तित्व और हैसियत देगी | आप सचमुच नादान हैं!

सोनिका- भैया टोपी दीजिए!
सोनिका सचमुच बोल उठी और मैं चौंक गया | मेरे मन के अंदर की सोनिका झट से गायब हो गयी और आन्तरिक वार्तालाप जो मैं लगभग हमेशा की किया करता हूँ, बंद हुआ | मैं जाग गया और इस बार वो टोपी मैने सचमुच उसे पहना दी |

मैं शांत हो गया था | सारे बच्चों की आँखें मेरी तरफ थी | सब के सब आँखों ही आँखों मे मुझसे टोपियाँ माँग रहे थे | हुसना ने रोना बंद कर दिया था, मोनिका ने बड़ी बहन की टोपी को छूकर देखा फिर मुझे देखा | नीरज अब राहुल के पीछे छुप के सब देख रहा था | मेरे पास कुछ नहीं था | मेरी नज़रें झुक गयीं | हिम्मत नहीं हो रही थी उनकी आँखों मे देखने की | सचमुच कुछ नहीं है क्या मेरे पास देने के लिए? असली ग़रीब कौन हुआ फिर?

चलो इनको छूकर थोड़ा प्यार दे दूँ | लेकिन ये कितने गंदे हैं | मेरा हाथ गंदा हो जाएगा | अभी रूम तक पहुचने से पहले अगर फ़ोन आ गया तो उसी गंदे हाथ से छूने पर मेरा महँगा फ़ोन भी गंदा हो जाएगा | उसे गीले कपड़े से साफ़ करना पड़ेगा | अगर छूना पड़ गया तो हाथ कहाँ धोएंगे?

तभी मोनिका बढ़ के आई और मेरा हाथ पकड़ लिया- भैया!
- हाँ 
- मेरा नाम मोनिका है, नाम बता दिया, मुझे भी टोपी दो!
- टोपी तो एक ही थी न… जेब मे पर्स नहीं है और आस पास कोई दुकान भी तो नहीं है |

तभी मुझे याद आया मेरी जेब मे एक चॉकलेट है जो मैं फॅकल्टी के सामने खा नहीं पाया | चलो यही खिला देते हैं सबको | अब हाथ तो गंदा हो ही गया है सबसे पहले इसे ही धोएंगे रूम पे जाके |

चॉकलेट की बनावट के हिसाब से उसके दस टुकड़े हो सकते थे और बच्चे ग्यारह थे |

तभी मेरी नज़र ज़मीन पर पड़ी | गुमटी और रोड के बीच मे मोटी दरार थी जिसमे किसी भी बच्चे का पैर फँस सकता था क्यूंकी गुमटी, रोड के किनारे खाईं वाली तरफ बनी थी | 

मैने मैडम से पूछा- इस दरार मे तो बच्चों का पैर फँस सकता है?
-        हाँ सर, फँसता तो है लेकिन बच्चा इसमे से गिर नहीं सकता नीचे…
-        मगर चोट तो लगती होगी न?
-        हाँ सर, मगर नीचे नहीं गिर सकते ये बच्चे…

मैने सोचा कि वो तो पता ही है की ये बच्चे नीचे नहीं गिर सकते, नीचे जिन्हे गिरना है वो तो दूसरे ही हैं, नीचे गिरने के लिए वैसे तो कद मे बहुत छोटा होना पड़ता है, लेकिन इंसान ही ऐसा जानवर है जो बड़े कद के बावजूद काफ़ी नीचे गिर सकता है जगह कम हो तब भी, तभी अचानक मुझे जाने क्यूँ लगा की मैं उस दरार से नीचे ना गिर जाऊं !

मैने पास बैठे राहुल का गाल छू लिया और एक आन्तरिक क्रांति हुई मानो! यह जानते हुए की वो काफ़ी गंदा है, मैने उसके हाथ पकड़ के उसे पास खींच लिया और गोद मे बैठा लिया | यह सचमुच क्रांति थी | यह एक तरह का “शुद्धीकरण” था जो “प्रति- शुद्धीकरण” के माध्यम से हुआ था | इसने, इस स्पर्श ने, मेरे और तमाम राहुलों के बीच की उस असहजता को झटके से ख़तम कर दिया था | यह स्पर्श रामकृष्ण का नरेन्द्र के प्रति नहीं था, यह मेरे अपने ही अंदर था, पर था उतना ही शक्तिशाली और मर्मस्पर्शी, मेरी संवेदना ने हीनभावना को गहरा छुआ था, क्रांति सी हुई और हीनभावना जाती रही!

पहली बार मैं गंदगी को छूकर साफ़ हुआ था | इससे राहुल को कोई फायदा नहीं हुआ पर मुझे हुआ था | मैं खुद को पता नहीं क्यूँ थोड़ा हल्का महसूस कर रहा था | 

राहुल मेरे साफ़ हाथों से असहज होता जा रहा था और बोला चॉकलेट दो!
मैने तोड़कर बारी बारी सात बच्चों को चॉकलेट दी | पता था कि किसी एक को नहीं दे पाऊँगा अंत में, इसलिए मैडम से कहा की बची चॉकलेट सबमें  बाँट दे | मैडम के लिए ये नयी बात नहीं थी, उन्होने बताया की वो अक्सर इस तरह का “न्याय” करती हैं, मैने उसे “नीति” की संज्ञा देना ज़्यादा उचित समझा | 

मैं चलने के लिए उठा | सबको देखकर मुस्कुराया, जवाब में सात आठ बच्चे भी मुस्कुराए पर उनकी मुस्कुराहट सच्ची थी | यह महसूस होते ही मेरी मुस्कुराहट गायब हो गयी | 

नमस्ते मैडम कहके मैं धीरे धीरे आगे बढ़ने लगा | चढ़ाई पर थोड़ा चढ़ने पर, दाएँ मुड़के नीचे देखा तो गुमटी दिखाई दे रही थी, बच्चे बाहर आ गये थे | सोनिका टोपी लगाए हाथ हिला रही थी, मैने भी टा-टा किया | जानबूझकर, पर जाने क्यूँ, मैने अपना महँगा मोबाइल उसी गंदे हाथ से निकाला और एक फोटो खींच ली |

आगे बढ़ा | साँसें कुछ भारी सी लगीं, थोड़ा दर्द सा हुआ, आँखों मे गरम गरम सा लगा कुछ...

मैने ये सोच के ज़्यादा नहीं सोचा कि साँसें चढ़ाई के कारण भारी हो रहीं हैं, दर्द कहीं और नहीं कमर में है और आँखों में जो पानी सा है वो तेज़ धूप की चमक के कारण हो शायद!

मुझे महसूस हुआ कि मैं अपने साथ थोड़ी सोनिका और थोड़ा राहुल ले आया हूँ और हाथ धुलने की अब कोई जल्दी नहीं थी… 




 

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