उम्र की चमकती तेज़ धूप की आँधियों में
गुज़रे वक़्त की सूखी धूल की दबीज़ चादरें
उड़ा करती हैं परत दर परत
उड़कर कोई चादर-ए-हयात ऎसी
जा गिरती है कभी
तुम्हारी यादों के
उस शफ्फाक़ दरिया में
जिसमें तुम्हारी आँखों की नील की
दो तीन बूँदें भी घुला करती हैं
ये चादर फिर से नई सी लगने लगती है
तुम्हारी यादों में धुल के
आँखों के नील में घुल के
यादों के दरिया की रवानगी बनी रहे तो बात हो
वरना ज़िन्दगानी भी कोई ज़रूरी तो नहीं !