Thursday, 1 November 2012

यादों के दरिया



उम्र की चमकती तेज़ धूप  की आँधियों में 
गुज़रे वक़्त की सूखी धूल की दबीज़ चादरें 
उड़ा करती हैं परत दर परत

उड़कर कोई चादर-ए-हयात ऎसी 
जा गिरती है कभी 
तुम्हारी यादों के 
उस शफ्फाक़ दरिया में 

जिसमें तुम्हारी आँखों की नील की 
दो तीन बूँदें भी घुला करती हैं 

ये चादर फिर से नई सी लगने लगती है 
तुम्हारी यादों में धुल के 
आँखों के नील में घुल के 

यादों के दरिया की रवानगी बनी रहे तो बात हो 
वरना ज़िन्दगानी भी कोई ज़रूरी तो नहीं !


 

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