इक तीव्र प्रबल उत्कंठा थी,
शुचि-शुद्ध-सात्विक मंशा थी,
उस धीर-पुरुष के मानस को,
चिर-काल से एक प्रतीक्षा थी |
झटके से फिर तंद्रा टूटी,
माया के प्रति भ्रम-भंग हुआ,
स्वाभाविक वृत्ति प्रखर हुई,
मन विप्लव को आकृष्ट हुआ |
निर्जन में उसने वास किया,
मुख-कान्ति-मलिन सायास किया,
श्रम-सीकर से सिंचित मुख से,
निर्धनता का उपहास किया |
वह डरा नहीं घन-कृष्ण-रात्रि में,
डरा नहीं खल-उत्पातों से,
वह डरा नहीं घनघोर वृष्टि में,
डरा नहीं झंझावातों से |
धन-द्रव्य कमाना लक्ष्य न था,
प्रासाद बनाना लक्ष्य न था,
इक दिव्य प्रकाश उगाना था,
इक शाश्वत दीप जलाना था |
निर्जन में मंदिर बना दिया,
संकल्प का दीपक जला दिया,
यह दीप जले सर्वथा चिरंतन,
इस नई चाह ने जन्म लिया |
इक नवीन शिव-संकल्प किया,
श्रृंखला बनाता जाऊँगा,
दीपों की इन लड़ियों से मैं,
इक नया सूर्य रच जाऊँगा |
धीर-पुरुष जो होते हैं,
नगरों के मोह को तजते हैं,
बाधाओं का आलिंगन कर-
निर्जन में जाकर बसते हैं |
हो गाँधी, तथागत याकि राम,
"वनवास" सभी में उभयनिष्ठ,
निर्जन ही उनका कर्म-क्षेत्र'
जो पुरुष धीर, जो कर्मनिष्ठ ||
(उन सभी धीर-पुरुषों को समर्पित जो निर्जन में वास करते हैं, कष्ट उठाते हैं और सत्य का संधान करते हैं | )