( बात तब की है जब मेरी मुलाक़ात "सत्य" से हो गयी | उसके अस्तित्व और "असत्य" से उसके सम्बन्ध में पूछने पर उसका उत्तर कुछ ऐसा था...)
निस्पृह-अशरीरी-शान्त
सर्वथा-क्लान्त
अनजान-अतिथि
नव-नवीन इस प्रान्त
बताओ कौन हो ?
'मृत्यु'' हो या 'मौन' हो ?
प्रत्युत्तर में बोला फिर वह-
मृत्यु नहीं हूँ जीवित हूँ
मौन नहीं हूँ गुंजित हूँ
विप्लव था पर विकृत हूँ अब
प्राकृत था पर निर्मित हूँ अब
वन्दित था पर वंचित हूँ अब
क्षितिज पार से अस्ताचल से
उदित मुदित ध्रुवतारा था पर-
धुर-यथार्थ की धुरी तले
धू-धू जलता पीड़ित सा हूँ अब |
"सत्य" हूँ मैं
हाँ सर्वकाल में सर्व-विजेता
"सत्य" हूँ मैं...
मैंने बोला-
सत्य हो यदि तो हाय दुर्दशा !
जय असत्य कि यहाँ सर्वदा
कलियुग का है किं-कुचक्र यह
लक्ष्य किधर और चले किस दिशा !!
प्रत्युत्तर में बोला फिर वह-
पर्वत पर था, खग-मृग तक हूँ
गोला हूँ मैं प्रखर-सूर्य सा
तुम फोड़ नहीं सकते मुझको
दो मोड़ मुझे कितना भी तुम
पर तोड़ नहीं सकते मुझको
असत्य का स्व-अस्तित्व कहाँ
वह मुझ पर निर्भर करता है
सत्य से पहले "अ" लगने पर
हर "अ"सत्य दम भरता है
उसको पोषित करता हूँ मैं
उसको जीवित रखता हूँ मैं
उसको जीवित रखता हूँ मैं
दिवस परे मैं कृष्ण-रात्रि में
असत्य को स्वच्छन्द छोड़ता
"शक्ति-सन्तुलन" करता हूँ मैं
श्वेत है यदि तो कृष्ण भी होगा
है तरंग तो कण भी होगा
सूक्ष्म है यदि तो स्थूल भी होगा
है जो मित्र तो शत्रु भी होगा
योग एक में नहीं है संभव
योग में दो "चर" अपरिहार्य हैं
बस यह ही 'चिर-द्वैतवाद' है
बस इतना सा 'योग-शास्त्र' है
सत-असत्य हैं द्वैत प्रकृति के
जब तक रहते लड़ते रहते
धर्म-युद्ध में बहते रहते
किन्तु सत्य ही मूल-धातु है
सत्य आदि है
सत्य अन्त है
शिव-सुन्दर-संकल्प विजयते
यत्र-तत्र-सर्वत्र-कालवत
सत्यमेव जयते !
सत्यमेव जयते !!