बिन बरखा
बिन पानी
बिन पानी
बेकल
मैं ज़मीन पर लेटा था
आँख उठाकर,
उफ़क़ में देखा
सुंदर तारा दिखता था...
एक अकेला तारा वो
छोटे नाखूनों से अपने
कलंक रात का खुरच रहा था
हौले से...
एक कटोरा मटमैला सा
बगल दबाये
जमा रहा था रात की कालिख
जाने क्यूँ वो...
हवा चली हलकी सी फिर
और आँख लग गयी...
पता नहीं मैं सोया कितना
पता नहीं वो घूमा कितना
पता नहीं वो घूमा कितना
इक बूँद गिरी आँखों पर
और मैं चौंक के जागा
अफ़सोस !
नन्हा तारा फौत हुआ था
रात में फिर से...
लाश थी गायब !!
पर तारे ने
मरते-मरते
रात की कालिख साफ़ तो की थी |
तारों का क्या है
रोज़ तो टूटा करते हैं ये
छोटे तारे...
छोटे तारे...
दिन को देखो
दिन उजला था चमकीला सा-
तारे जैसा !
कालिख वाला डिब्बा, मटमैला
इक बादल बनके करिया सा
पास के खेत में बरसा था
धान लगाने आये थे सब...
इक तारा टूटा कहीं...
तो कहीं इक सपना सच हुआ !
( फौत होना- मर जाना )