Wednesday, 7 March 2012

इंतज़ार पुरज़ोर चंदा का- छठवीं रात भी


तुमने रात चुरा ली है
नींद-ओ-ख्वाब भी

अंगडाईयाँ, पलकें
सब इंतज़ार में हैं..

मैं तुम पे 
टूट के रोऊँ 
और उन्हें कुछ 
आस हो...
नींद हो न हो 
उबासियों की 
इक साँस हो...

सारी यादों की पतली डोर 
जोड़-जोड़ के... 
एक मज़बूत रस्सी से 
बाँध लेती हो... 
सजा तो मंज़ूर है कुछ भी 
मगर मेरी खता क्या है चंदा !

अपनी नींद से भरी 
सपनीली आँखों को 
कागज़ पे झुका के 
उड़ेल दूँ 
तो वो ग़ज़ल आ जाये 
जिसमे तुम बसती हो चंदा...

आओ ना ग़ज़ल में मेरी 
इंतज़ार कब से है,
इससे पहले कि 
नींद आ जाये 
या आँखों की झीलें 
जम जाएँ 
आ जाओ ना चंदा 
या इतना ही कह दो कि 
कब आओगी...


इन तारों को देख के सोचा है 
तुम्हारे गले की माला 
कब टूटी थी 
मोती टिम-टिमा रहे हैं 
फलक में दूर तलक 

भिगा रहे हैं  
शबनम को 
आओ न 
इन तारों की माला पिरो के 
तुम्हे पहना दूँ
आओ न चंदा !

तारों के सब्र का 
और मेरे इंतज़ार का 
इम्तेहान बहुत हुआ जी अब...
आओ न चंदा !!
आओ न...

















 

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