Wednesday, 7 March 2012

*अधूरे सपने और हम तुम *


नींद के शहर में 
हर तरह की 
बस्तियाँ हैं सपनों की... 

कुछ महल से सजीले सपने 
कुछ सस्ते घरों से आम सपने 
या फिर 
टूटी झोपड़ी से अधूरे सपने...

मेरे सपने कुछ अजीब से हैं
इनमे घर नहीं दीखते अब
कुछ खुले कुशादा मैदान हैं 
कुछ दरिया समंदर झीलें हैं 
कुछ पानी है बर्फीला सा
आँख की झील में जमा...

इन सब में घुली मिली कुछ तुम हो 
और तुम्हारा अक्स है 
हाँ तुम हो मेरे नींद के शहर में...

ये देखते ही आँख लग जाती है
मतलब कि मैं अब तक जगा हुआ था!!!

आँखों की झील के पोरों से 
रिसता हुआ खारा पानी 
गीला तो उतना ही है पर 
कुछ गर्म सा लगता है
तकिये को नमकीन कर देता है...

और मैं सो जाता हूँ इस तरह अक्सर 
अपने अधूरे सपने के साथ 
तुम्हारे अक्स के साथ... 

अब लगने लगा है कि 
सपने अधूरे ही अच्छे हैं 
इनको पूरा करने को 
ये आँखें सो तो जाती हैं
वरना दोनों पलकों से 
रात के अँधेरे बीना करते 
नींद के शहर से बाहर
कहीं दूर तक... 

अधूरे सपने चलते रहेंगे 
जब तक इन झील के पोरों में 
खारा पानी रिसता रहेगा 
और रातें कट जाया करेंगी 

अधूरे सपनों की बस्तियों में 
तुम्हारे अक्स के साथ...
 

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