मंज़िल मेरी उस ऊँचे
परबत पे है मसूरी के
रस्ते सीधे नही हैं
हवा कम हैं
फेफड़ों मे...
कुहरा सफेद पपड़ी सा है
आँखें जमी सी हैं
और काई की तह पे
फिसलता चढ़ता हूँ...
मुट्ठियाँ भींचे
बढ़ता हूँ...
मुट्ठियों मे
उस अंधी बच्ची ने
कुछ सुपुर्द किया था
उसी के सहारे
चढ़ता हूँ...
बहुत जान है
उस जज़्बे मे
उस बच्ची के जज़्बे मे
जिसे मैं
हौसला कहता हूँ...
हौसलों की
मुट्ठियों से
ज़िंदगी के परबत पे
वार करता हूँ
पगडंडियाँ निकल आती हैं
उस बच्ची को याद करता हूँ
चढ़ता हूँ..