कभी तन्हाइयों मे उतार जाता हूँ
सर-ए- बाज़ार
मन की उन गहराइयों मे
जहाँ तुम्हारी बस्ती है
मेरी तो कल्पना है
सिर्फ़ तुम्हारी ही हस्ती है
उतार जाता हूँ
आहिस्ता...
और देखा करता हूँ
चुपचाप
बेहिस
तुम्हें
तुम्हारी आवाज़ की धनक के
सात रंग
अल्फ़ाज़ मे घुली मुस्कान की चीनी
और निगाहों की तेज़ पतंग
आहिस्ता...
ऐसा क्यूँ लगता है मुझे
के महसूस कर रही हो
तुम भी मुझे
अपनी रूह मे
अंजाने ही
जाड़े की चमकीली धूप तरह
आहिस्ता...
जी रही हो तुम मुझे
साँसों मे
वादियों की हल्की सहर सी
और साँस ले रहा हूँ मैं तुम में...
गहरी झील मे पतली लहर सी
आहिस्ता...
तब वहीं
उसी वक़्त
दिल से जो निकलती है
बेपरवाह सी
इक मुक़म्मल आह सी
वो कविता हो तुम मेरी...
वही कविता
जो पहले से दिल मे बसा करती थी
सदियों से
बस तुम्हे देख के जवान हुई
आज कल मे
इक पल मे
आहिस्ता...
अब तक कैसे जीता था
ये नन्हा सा दिल
जब तुम नहीं थी
ये सोचा करता है नादान
हर एक धड़कन के साथ
और सुर्ख़ लाल सा हो जाता है
शर्म-ओ-हया से
आहिस्ता!