Monday, 8 October 2012

बस यूँ ही...

कुछ लोगों को मौत से डर नहीं लगता
तीर चुभता है पर रूह पे नहीं लगता

जवाब किसी खत का न मिला है, न मिलेगा ही
उन्हें पता है कि हमको बुरा नहीं लगता

काश ये सूरज मयस्सर हो कभी हर इक शै को
ऐसा मुमकिन है पर हर सुबह नहीं लगता

दुनियादारी के दाँव पेच सभी सीख चुके
नफ़े नुक़सान की बातों मे दिल नहीं लगता

इस मुसाफ़िर का अब सफ़र मे दिल नही लगता
रास्ते मे तो लगता है मंज़िल मे नहीं लगता

हर एक बच्चे की मुस्कान के हम हैं कायल
किसी भी बुत मे मगर अब ख़ुदा नहीं लगता

ज़ख़्म गर लाल हो तो उसको हरा कहते हैं क्यूँ
ज़ख़्म ये लाल है पर अब हरा नहीं लगता

जो बुरा लगता है दुनिया को खुद के चश्मे से
जो खुद करो कभी तो खुद बुरा नहीं लगता

मेरे ज़हन मे जो तस्वीर थी वो टूट गयी
उखड़ा हुआ दरख़्त फिर नहीं लगता

पड़ोस के शमशान से डर लगता है "स्वर"
घर के बुज़ुर्ग की मिट्टी से डर नहीं लगता !
 

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