Wednesday, 25 July 2012

ज़रूरत


न घर, की न बस्ती की, न बिस्तर की ज़रूरत 
हर दरिया को है उसके समंदर की ज़रूरत 

मरहम की इन्तेहा हुई पर घाव न सम्हला 
तेज़ाब की शीशी तो है, नश्तर की ज़रूरत 

क्या खूब बनाये हैं तूने काँच के ख़ुदा 
है दिल में हौसला बस इक पत्थर की ज़रूरत 

हर आखिरी बाज़ी को समझ ताश का क़िला 
पुरज़ोर गिराओ कि है टक्कर की ज़रूरत 

दो रोटियाँ भूखे को मिलें ना मिलें सही 
दो बोल प्यार के मगर अन्दर की ज़रूरत 

मिल जाए अगर चैन-ओ-अमन काफ़िरों से ही 
दुनिया को न मस्जिद की न मन्दिर की ज़रूरत !
 

स्वर ♪ ♫ .... | Creative Commons Attribution- Noncommercial License | Dandy Dandilion Designed by Simply Fabulous Blogger Templates