Tuesday, 24 July 2012

युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं !




रात काली है भयंकर, दूर तक पसरा अँधेरा
डस लिया है कृष्ण सर्पों ने, नहीं जीवित सवेरा 
है मगर तू सूर्य इतना जान ले बस
उग प्रखर सा भोर कर, ललकार के बस
  अब समय है, पूर्ण कर जो स्वप्न तूने खुद बुने हैं 
युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं !

मृत्यु है निश्चित, अकेला तथ्य है यह 
युद्ध में सब ही मरे हैं सत्य है यह 
है मगर तू भीष्म इतना जान ले बस
मृत्यु तेरी दास है यह मान ले बस 
चुभ रहे जो तीर, चुभने दे- ये तूने खुद गिने हैं
युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं !

यह जो जीवन है तेरा 'सागर का मंथन' है अनोखा 
इसमें निकले रत्न हैं, अमृत है, विष है और धोखा
है मगर तू शिव सा इतना जान ले बस 
अमर होकर क्या करेगा, छीनकर विषपान कर बस 
कंठ तेरे है हलाहल, कंठ के "स्वर" रुनझुने हैं
युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं !

मानता हूँ तू अकेला है बहुत और थक चुका है
पीठ में खंजर गड़े हैं, स्वेद-शोणित बह चुका है 
है मगर तू वज्र की तलवार इतना जान ले बस
जंग में ही, वज्र का है ज़ंग मिटता, प्राण ले बस
शौर्य के तेरे ही किस्से वीर-पुत्रों ने सुने हैं 
युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं !

मानता हूँ तुच्छ है तू, कण है तू, परमाणु है तू
जानता हूँ मर्त्य है तू, द्रव्य है और वायु है तू 
अन्त में तू ब्रह्म है और बम भी है- यह जान ले बस
"प्रलय का विस्फोट" है और बुद्ध के "निर्वाण का रस" 
प्रकृति का यह गीत तूने ही लिखा- संगीत में तेरी धुनें हैं
युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं !

 

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