Thursday, 2 February 2012

* मेरी रेशेदार उम्र से परे *

समय का एक मोटा टुकड़ा "दिन" खरीदा
सस्ते में

उसकी चौबीस फाँकें करके
कमरे में छितरा दी हैं

एक फाँक के साठ कतरे किये
एक कतरा ले हाथों में

फिर उसके साठ रेशे 
अलग-अलग कर रहा हूँ..

ये रेशा किस चीज़ का बना है ?
तेज़ी से घुल रहा है मुझमें..

गिनते गए रेशे और 
ये मोटा टुकड़ा "दिन" बीत गया

दिन तो फ़क़त रेशे, कतरे, फाँकें, टुकड़े सा लगा

और हम इसे इक उम्र समझते थे पहले

नासमझी में कितने
रेशे रिसे
कतरे खोये
फाँकें फिसली
टुकड़े टूटे...

जो रेशे घुल चुके वो नहीं आएंगे

जो आए नहीं वो नहीं हैं यहाँ

जो रेशा हाथ में है
वो तो गिनती भर का है

इसमें मेरी उम्र कहाँ है
किस चीज़ की बुनी हुई है
ये उम्र मेरी...

रेशेदार, फाँकवाली,  कतरा-कतरा,  टुकड़ों वाली उम्र 
किसने बुनी ?
किसके लिए ?
किस धागे से ?

मैं इस बुने से
बाहर देख पा रहा हूँ...
और देख रहा हूँ के 
इसमें उलझा हुआ हूँ मैं...

इस रेशेदार उम्र से परे क्या होगा 
ये सोच रहा हूँ...

-स्वतःवज्र 
 

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