Wednesday, 1 February 2012

जा रहा हूँ बाइंडिंग उधेड़ने...

मेरे दिन 
किताब के पन्नों की तरह हैं
सारे जुड़े हैं
एक किनारे
बीता हुआ कल
अभी तक चिपका है
पीठ पे...

आने वाला कल 
अभी आया नहीं पर 
आज का पन्ना 
लदा हुआ है उसपे...

जी करता है 
बाइंडिंग उधेड़ दूँ
और
छितरा दूँ सारे पन्ने 
अलग अलग...

मेरे बीते कल के जूठन 
मुक्त हो उड़ें
पंखे की हवा में 
निकल जाएँ 
दरीचे से बाहर
बागों में...
आने वाला कल 
उड़कर घुस जाये
बिस्तर के नीचे

और आज का पन्ना 
मेरे हाथ में हो
जैसे अखबार हो 
सुबह का
 
अखबार के पन्ने 
साथ तो हैं
पर बेवजह चिपके नहीं...

जा रहा हूँ 
बाइंडिंग उधेड़ने 
और किताब को 
अखबार बनाने...

-स्वतःवज्र
 
    
 

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