Wednesday, 4 April 2012

युद्ध-योग




हर राह को हर मोड़ को 
हर शख्स को घर जाने दो 

हर शाख को हर शाम को 
हर रात को ढल जाने दो 

लेकिन कटे न सिर यूँ ही 
जब सिर कटे झुक जाने दो 

सिर झुका के मौन हो
एकांत में रम जाने दो 

ले आग दिल में आँखों में  
हर नब्ज़ में घुल जाने दो 

दिखते हो तुम कुछ ख़ाक से 
बारूद का रंग आने दो 

कुछ और शोले घोल के 
ठंडा करो जम जाने दो 

कुछ राख ऊपर ओढ़ लो  
कुछ ज़हर सा चढ़ जाने दो 

दुश्मन तुम्हारा मोम है 
तुम आग हो भड़काने को 

फिर युद्ध को ललकार दो 
तैयार मर मिट जाने को

अबकी झुके न सिर कहीं 
जब सिर झुके कट जाने दो

तो देर है किस बात की 
जो होना है हो जाने दो !

जो होना है हो जाने दो...


( यह विचारधारा "मर्यादा" पुरुषोत्तम राम से कुछ आगे की है और "योगेश्वर" श्री कृष्ण से कुछ पहले की, कुछ कुछ  "मध्यम मार्ग" की ओर...यहाँ उल्लेखनीय है कि "मध्यम मार्ग" का अर्थ किंकर्तव्यविमूढ़ता या उदासीनता नहीं अपितु व्यावहारिक-सक्रिय-कर्म-योग है । इसमें भी "निर्णायक जय या पराजय" संभव है । यह युद्ध-योग है ;यहाँ मर्यादा और छल दोनों साथ साथ चलते हैं... )


 

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